उदात्त जीवन की ओर (भाग-5)

उदात्त जीवन की ओर (भाग-5)

प्रतिदिन रास्तों, गलियों और गंदी नालियों की सफाई करने वाले वेतन भोगी कामगारों को कोई महान नहीं कहता। लेकिन गाँव-गाँव की गलियों में, गंदी नालियों की सफाई करने वाले, धोबी जाति के ‘ढेबू’ नामक अनपढ़ व्यक्ति को, आज एक महान संत, गाडगे महाराज के रूप में जाना और माना जाता है। आज अनेक विद्यालयों, महाविद्यालयों तथा विश्वविद्यालयों को उनके नाम का स्मारक बनाया गया है। इसी महापुरुष के नाम को सम्मानित करने, संत गाडगे निर्मल ग्राम योजना अभियान, महाराष्ट्र में ही नहीं, सम्पूर्ण भारत में चलाया गया। तात्पर्य यही है कि कोई भी कार्य न तो छोटा होता है और न बड़ा। छोटा-बड़ा होता है, कर्त्ता का दृष्टिकोण, उसका उद्देश्य और उसकी भावनाएँ और उसकी व्यापकता। कोई भी कार्य जितने निस्वार्थ रूप से, सिर्फ विशुद्ध कर्तव्य भाव अथवा ‘सर्व जन हिताय-सर्व जन सुखाय’ की उदात्त भावना से किया जाता है, वही कार्य उतना ही महान बन जाता है। लेकिन ‘उदात्त दृष्टिकोण’ अथवा ‘सर्वजन हिताय’ का उच्च उद्देश्य या निस्वार्थ कर्तव्य भाव से कर्म करने की यह ‘विशिष्ट क्षमता’, जो मनुष्य की बहुत ऊंची मानसिक अवस्था है, सहज रूप में ही प्राप्त नहीं होती। यदि यह ‘विशिष्ट क्षमता’ सहज रूप में ही प्राप्त होती तो कितना अच्छा होता! फिर किसी को महापुरुषों के जीवन चरित्र पढ़ने-पढ़ाने की आवश्यकता नहीं होती।

मनुष्य अन्य प्राणियों से इसलिए भी श्रेष्ठ है कि वह अपनी मानसिक अवस्था का उन्नयन कर सकता है अर्थात ऊँचा उठा सकता है। वह उसे उच्च से उच्चत्तर तथा उच्चत्तम अवस्था तक ले जा सकता है। मनुष्य के भीतर जो पशुत्व है या जो शैतानियत है उससे छुटकारा पाने की क्षमता भी मनुष्य के ही भीतर मौजूद है। गांधी जी ने बचपन में चोरी की तथा माता-पिता से छिपकर मांस भक्षण भी किया और बाबा साहेब आम्बेडकर की जीवनी में भी चोरी करने का उल्लेख मिलता है, लेकिन चोरी करने की आदत को उन्होंने जीवन भर अपने सिर पर ढोया नहीं। जल्दी ही उन्होंने इस बुरी बात से अपने आप को अलग कर लिया और फिर जीवन भर कभी चोरी नहीं की। यहाँ इस बात का उल्लेख सिर्फ यह स्पष्ट करने के लिए किया जा रहा है कि संसार के सभी महापुरुष प्रारम्भ में सामान्य आदमियों की तरह ही, न्यूनाधिक मात्रा में भलाई-बुराइयों के साथ ही पैदा हुए थे।

सभी मनुष्यों की तरह ही महापुरुषों के प्रारंभिक जीवन में काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार, छल, कपट, झूठ, चोरी, कृतघ्नता, कठोरता-बर्बरता, स्वार्थीपन, आलस्य, निकम्मापन, दीर्घसूत्रता, बहानेवाजी, दुराव-छिपाव इत्यादि नकारात्मक कही जाने वाली प्रवृत्तियों के साथ-साथ प्रेम, दया, करुणा, क्षमा, मैत्री, कृतज्ञता, नम्रता, मृदुता, निरहंकारिता, नि:स्वार्थता, श्रद्धा, सेवा, सहयोग, सहायता, संतोष, शील, सत्यता, सरलता, सृजन शीलता, श्रमशीलता, त्याग, उत्सर्ग, उत्साह, उल्लास, उद्यमता, उदारता, उदात्तता आदि सकारात्मक प्रवृत्तियां भी गुप्त या प्रकट रूप में उपस्थित रहती हैं। एक दृष्टि से मानव जीवन की सार्थकता अपने व्यक्तित्व की नकारात्मक वृत्तियों के विरुद्ध संघर्ष करने और सकारात्मक प्रवृत्तियों के विकास का प्रयास करने में है। इस कार्य में जो जितनी मात्रा में सफल होता है, वह उतनी ही मात्रा में महापुरुषत्व की ओर अग्रसर होता है।

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