कफ़न के ताने-बाने (भाग-2)

कफ़न के ताने-बाने (भाग-2)

कफ़न के ताने-बाने (भाग-2)

कफ़न के ताने-बाने (भाग-2)

एक तरफ ‘कफ़न’ को प्रेमचंद की सर्वश्रेष्ट कहानी और हिन्दी की श्रेष्ठतम कहानियों में गिना गया और कहा गया कि निश्चय ही ‘कफ़न’ में प्रेमचंद की कला अपने पूर्ण उत्कर्ष पर है। (प्रो़फेसर रमाकांत-सारिका, वही) तो दूसरी तरफ एक जनवादी लेखक की यह आपत्ति- इस कहानी में जो समस्या उठाई गई है उसका कहानी में समाधान नहीं है, इसलिए यह कमजोर कहानी है-दुर्भाग्यपूर्ण है। (आलोचना, जनवरी – मार्च, 1987, पृ.12) प्रसिद्ध कथाकार निर्मल वर्मा ‘कफन’ को व्यक्ति- स्वातंत्र्य की कहानी घोषित करते हुए लिखते हैं, जिस क्षण बाप-बेटे ने घर की औरत के कफ़न के पैसे से शराब का कुल्हड़ मुँह से लगाया था, उसी क्षण पहली बार, हिन्दी साहित्य में व्यक्ति ने अपनी स्वतंत्रता का स्वाद भी चखा था। यह क्षण वह था, जब प्रेमचंद के समाज में ‘व्यक्ति’ का जन्म हुआ था। यह जन्म मृत्यु और शमशान की छाया में हुआ था- दो पियक्कड़ हिन्दुस्तानियों का मुक्ति-समारोह। अपनी अंतिम कहानी में प्रेमचंद एक दायरा पूरा कर गए थे। (पूर्वाग्रह का ‘इधर की कथा’ विशेषांक)

निर्मल वर्मा के उक्त मत की प्रतिक्रया में श्री रवीन्द्र वर्मा का मत भी यहाँ द्रष्टव्य है। वे लिखते हैं, ‘कफ़न’ को दो हिन्दुस्तानियों का मुक्ति-समारोह कहना व्यंग्य ही ज्यादा लगता है। यह वास्तव में अमानवीकरण का मर्सिया है। मगर ‘कफन’ सिर्फ एक मर्सिया नहीं है। यह एक सी कथाकृति है जिसमें लेखक की सोच अनुभूति के धरातल पर ऐसे कथाबिंब की रचना करती है, जिसमें लेखक की समूची दृष्टि प्रकाशमान होती है। ‘कफन’ अंतत: एक अंधेरी चीख है-परिवर्तन के लिए। (आलोचना, जनवरी-मार्च 1987, पृ.12)

इस प्रकार के मंतव्यों की सूची बहुत लंबी है। यहाँ एक लंबा मंतव्य और है, फिर इस प्रकरण पर पूर्ण विराम। ‘सारिका’ के फरवरी 1987 के अंक में रमेश उपाध्याय लिखते हैं, ‘कफन’ में किसानों की तुलना जिन घीसू माधव से की गई है, वे नकारात्मक चरित्र हैं और यहीं पर प्रेमचंद चूक गए हैं । इन नकारात्मक चरित्रों से किसानों की तुलना गलत हो गई है, क्योंकि इस तुलना पर गाँव के सरल, निरीह और विचार शून्य किसान आत्मालोचन करने के बजाय यह कह सकते हैं कि क्या वे लंपट घीसू-माधव हमसे अच्छे हैं? हम इनकी तरह कामचोर तो नहीं हैं। इस प्रकार ‘कफन’ में प्रेमचंद ‘पोयटिक जस्टिस’ नहीं कर पाते, कहानी की द्वंद्वात्मकता का निर्वाह नहीं कर पाते, उनका ‘आदर्शोन्मुख यथार्थवाद’ यहाँ नग्न यथार्थवाद की तरफ झुका हुआ दिखाई देने लगता है। हालांकि यह उतना और वैसा नग्न यथार्थवाद फिर भी नहीं है, जितना और जैसा आधुनिकतावादियों और कलावादियों को पसंद है, लेकिन इसमें कोई शक नहीं है कि प्रेमचंद इस कहानी में चूके हैं, लेकिन भूल-चूक किससे नहीं होती। फिर महान लोगों की भूलें भी महान होती हैं। यदि लेखक कहानी की रचना पद्धति में कहीं चूकता है तो वह अपने उद्देश्य में सफल नहीं हो सकता, क्योंकि उसकी वह चूक कहानी की कलात्मक संरचना में एक ऐसी दरार पैदाकर देती है, जिससे अनपेक्षित अर्थ बाहर से रिसकर आ सकते हैं।

डॉ. केशव प्रथमवीर
पूर्व हिंदी विभागाध्यक्ष
सावित्रीबाई फुले पुणे विद्यापीठ

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