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स्वार्थ और परमार्थ

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स्वार्थ और परमार्थ

स्वार्थ और परमार्थ

जन्म के बाद से ही अपने कर्तव्यों और दायित्वों के फल की अपेक्षा मानव धर्म में स्थापित हो जाती है। जब इच्छित परिणाम प्राप्त नहीं होते तो दुःख होता है और जब इच्छाएं और आकांक्षाएं पूरी हो जाती हैं तो सुख होता है। संक्षेप में, यदि कोई इच्छा या अभिलाषा पूरी हो जाती है तो खुशी और आनंद होता है व इसके विपरीत, यदि वह अपेक्षा पूरी नहीं होती, तो दुःख होता है। अर्थात् स्वार्थ सिद्ध हो जाए तो सुख मिलता है।

ऐसे कर्मों के कारण ही व्यक्ति को जन्म-मरण के चक्र में रहना पड़ता है। यदि आप इससे बचना चाहते हैं तो आपको ईश्वर के प्रति समर्पण करना होगा। इसके लिए व्यक्ति को पूरे मन से ईश्वर को समर्पित होना चाहिए तथा जीवन में परोपकारिता का अनुसरण करना चाहिए। सफलता, असफलता, सुख-दुःख से मुक्त होने के लिए मनुष्य को परमार्थ का अभ्यास करना चाहिए। केवल विरक्त होने से ही मनुष्य जन्म-मृत्यु से मुक्त हो सकता है। ऐसा समर्थ रामदास ने दासबोध में बताया है।

वासना/स्वार्थ जन्म के बीज हैं। वे ही संसार के दुःख का मूल कारण हैं। ऐसा माना जाता है कि आत्मा का जन्म जीवन के सभी संचित कर्मों का कुछ हिस्सा भोगने के लिए होता है। कर्म सूक्ष्म अवस्था में विद्यमान रहता है। इसका आनंद लेने के लिए शरीर एक शरणस्थल के रूप में आवश्यक प्रतीत होता है, इसलिए सूक्ष्म कर्म शरीर के रूप में जन्म लेता है। भगवान को याद करना पुण्य माना जाता है, उन्हें भूलना पाप माना जाता है। संसार में जन्म लेने के बाद आत्मा दिखावे के दबाव में आकर ईश्वर को भूल जाती है। समय वह शक्ति है जो दृश्यों में क्षणिक परिवर्तन लाती है। समय का सामना सदैव विनाश से होता है। इससे छुटकारा पाने के लिए परमार्थ आवश्यक है।

अब आइए देखें कि परमार्थ का क्या अर्थ है- परम और अर्थ दो शब्द हैं। परम का अर्थ है सबसे अच्छा, सबसे अनोखा, सबसे उत्तम, सबसे अनंत और अर्थ का अर्थ है ज्ञान की वस्तु, लक्ष्य और भावार्थ का अर्थ है मन को वस्तु का ज्ञान होना, अर्थात उसका अर्थ समझना। मनुष्य का सर्वोच्च लक्ष्य ब्रह्म को प्राप्त करना है और इसे प्राप्त करने के लिए जो आध्यात्मिक साधना की जानी चाहिए उसे परमार्थ कहा जाता है। परमार्थ मानव जीवन को सार्थक बनाता है और परमार्थ ही हमें इस संसार में उचित मार्ग पर ले जाता है। धार्मिक लोगों के लिए केवल धर्मपरायणता ही परलोक के आरंभ का मार्ग दिखाती है। केवल कई जन्मों के पुण्य कर्मों के बाद ही कोई परमार्थ प्राप्त कर सकता है।
जब दिव्यता प्राप्त हो जाती है, तो व्यक्ति भगवान के सच्चे स्वरूप का अनुभव करता है। जो व्यक्ति परमार्थ को समझता है और उसे आचरण में लाता है तब उसका जन्म सार्थक होता है। बाकी सभी लोग पापी हैं और केवल विनाश के लिए ही पैदा हुए हैं।

Sudeer-Methekar-252x300 स्वार्थ और परमार्थ
लेखक : श्री सुधीर उद्धवराव मेथेकर, हड़पसर, पुणे

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