शांति और आनंद! (सामाजिक व्यंग्य)

शांति और आनंद! (सामाजिक व्यंग्य)
पिछले अंक से आगे
मैं शांति के साथ रहना चाहता हूं, तुम मुझे थोड़ी देर के लिए अकेला छोड़ दो, मैं तुमसे हाथ जोड़ता हूं, विनती करता हूं।
मैंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है, तुम मेरी बात क्यों नहीं सुनते, तुम मुझसे हाथ जोड़कर यह विनती कर रहे हो यह कितना बुरा लगता है। मैं भी तो इतने दिनों से बार-बार एक ही अनुरोध कर रही हूं, मुझे जीने दो, मुझे भी जीने का अधिकार है, मैं भी आनंद के साथ रहना चाहती हूं। मैंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है, किस जन्म का बदला ले रहे हो, मैं तुम्हारे साथ-साथ तेरे लिए समाज के सामने अग्नि के साथ फेरे लिए। सात वचन निभाने का प्रण किया। आज तक तुम जैसा कहते रहे, मैं तुम्हारी बातों पर विश्वास करती रही और तुम्हारे अनुसार चलती रही मगर आज भी तुम मुझे शंका भरी दृष्टि से देखते हो, आज भी तुम सारे दोष मेरे ऊपर मार देते हो, मैंने तुम्हारे लिए कितने कष्ट सहे। परिवार और समाज ने जैसा भी उचित समझा तुम्हारे साथ मेरा गठबंधन स्वीकार हो गया। मैंने कभी तुम्हें अपने से दूर होने नहीं दिया। सभी लोग यही कहते थे कि अब शांति एक अच्छे घर में चली गई है। वहां शांति के दिन अच्छे बीतेंगे पर हाय रे भाग्य का खेल तुम्हारे जैसा…!
अब बस भी करो। तुम्हारी जली-कटी सुनने के लिए नहीं आया हूं। मैंने कभी नहीं सोचा था कि मुझे जीवन में शांति से दूर रहना पड़ेगा। तुमने मुझे किसी योग्य नहीं छोड़ा। अब पानी नाक से ऊपर चढ़ गया है। यह तू-तू मैं-मैं का अवसर नहीं है। तुम आनंद के साथ रहना चाहती हो तो मैंने कभी तुम्हें इसके लिए मना नहीं किया, लेकिन आनंद कहां रहता है, उससे तुम्हारा क्या संबंध है और आनंद एक है या उसके कई रूप हैं। वह वास्तव में काम क्या करता है, उसका चाल-चरित्र गोत्र-वंश जाति-धर्म क्या है, वह तुम्हें ऐसा क्या प्रदान कर सकता है जो मैं तुम्हें नहीं दे सकता। उसकी ऐसी क्या विशेषता है जो तुम्हें मुझ में नहीं दिखाई पड़ती। मुझ में जो दोष है वह सभी लोगों को ज्ञात है, सभी लोग मुझसे परिचित हैं। भले ही उन्होंने मुझे नहीं देखा, लेकिन सारी दुनिया कहती है, सारी दुनिया आपस में चर्चा करती है, मैं अगर भूले भटके भी उस तरफ से निकलता हूं तो लोगों में बाबा ही और हर्ष का वातावरण छा जाता है, सभी लोग एक स्वर से पुकार उठाते हैं- आनंद आ गया, देखो देखो मैंने बताया था न कि मेरे साथ चलो आनंद आएगा। अब बताओ कि आनंद आया या नहीं? सभी ने यह बात स्वीकार की और मेरे सामने पूरे उत्साह और जोश के साथ सभी ने यह बात मानी कि हां आनंद आ गया। बहुत आनंद आया जीवन में पहली बार इतना आनंद आया, मैं ही तो हूं वही तो हूं मैं जी आनंद को तुम संसार का सबसे निकृष्ट प्राणी समझती हो, जिसे तुम कभी शांति के साथ बैठने भी नहीं देती। तुम्हें लगता है कि शायद मैं तुम्हें छोड़कर शांति का हो जाऊंगा। यही तुम्हारी भूल है, तुम्हें नहीं पता शांति स्वयं आनंद की खोज में घूमती रहती है। जगह-जगह विचरण करती हुई आनंद को खोजती रहती है पर विधि का विधान ऐसा है कि जहां जाती है पता चलता है कि अभी थोड़ी देर पहले ही यहां आनंद आया था। सभी लोगों को कहते हुए सुना है कि आया हां आनंद आया और हम लोगों को प्रसन्न मुद्रा में छोड़कर गया पर उसने सभी को यह बताया कि अब मैं जा रहा हूं क्योंकि यहां कुछ ही देर में शांति आने वाली है। तुम्हारा नाम सुनते ही सभी लोग मुझसे संबंध तोड़ लेते हैं जब तुम ही मेरे साथ नहीं रहोगी तो मैं तुम्हारे साथ कैसे रह सकता हूं। (समाप्त)
श्री राम प्रताप चौबे
(सैनिक बाबा), बक्सर (बिहार)
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