दर्पण : समाज प्रबोधन की एक नई दृष्टि
जाने-माने मीडिया विशेषज्ञ ए.ए. बेर्जर ने कहा, समाचार पत्रों का इतिहास जनता और आंदोलनों का इतिहास है। समाचार-पत्र समाजीकरण की प्रक्रिया को तेज करते हैं। यह लोगों को सामाजिक संकेतों, कार्यात्मक भूमिकाओं और मूल्यों के बारे में शिक्षित करता है। तदनुसार, आचार्य बालशास्त्री जाम्भेकर ने केवल लोक कल्याण और सार्वजनिक शिक्षा को ध्यान में रखते हुए 6 जनवरी, 1832 को मुंबई में दर्पण नामक पाक्षिक अंग्रेजी और मराठी भाषा समाचार पत्र शुरू किया। उस घटना की याद में राज्य में हर साल 6 जनवरी को ‘दर्पण दिन’ मनाया जाता है, इसी उपलक्ष्य में यह लेख…
1832 का काल निस्संदेह ब्रिटिश शासन का काल था। देशभक्ति के लिए समाज को प्रबोधन की अत्यंत आवश्यकता थी। बालशास्त्री को लगा कि हमारे दिलों में देशभक्ति की भावना जगाने और हमें उस स्थिति से अवगत कराने के लिए एक अखबार होना चाहिए जब हमारा देश अंग्रेजों के हाथों में था और उन्होंने दर्पण की शुरुआत की। अपने समाचार पत्र ‘दर्पण’ के माध्यम से बालशास्त्री ने दोहरा संवाद किया कि तत्कालीन शासकों को भारतीय जनता की आशाओं और अपेक्षाओं का प्रतिबिंब देखना चाहिए और साथ ही जनता को विदेशी लोगों के कार्य की पहचान और प्रकृति पर भी ध्यान देना चाहिए। दर्पण के माध्यम से बालशास्त्री ने इस सिद्धांत का पालन किया कि समाचार पत्रों को दर्पण के माध्यम से सरकार और लोगों के बीच एक कड़ी के रूप में काम करना चाहिए।
दर्पण के अंतरंग
दर्पण पहले वर्ष में लगभग तीन सौ से चार सौ लोगों तक पहुंचा। इसके पाठक सदस्य (वर्गणीदार) 280 थे। आमतौर पर उस समय एक अखबार 50 लोग पढ़ते थे, लेकिन कुल मिलाकर दर्पण की पहुंच लगभग 12 से 15 हजार पाठकों तक थी। उन्होंने ‘दर्पण’ में एक भी विज्ञापन नहीं छापा। अपने पैसे से उन्होंने लगभग आठ वर्षों तक लोगों के लिए अखबार जारी रखा। भाऊ महाजन की मदद से वह ‘दर्पण’ के लिए मराठी और अंग्रेजी पक्ष को संभाल रहे थे। अतः ‘दर्पण’ की गुणवत्ता उच्च थी। दर्पण पाक्षिक में आधा पृष्ठ अंग्रेजी में और आधा मराठी में था। इसमें पृष्ठ के दो स्तंभों के साथ डेमी आकार के 8 पृष्ठ भी शामिल थे। यह सरकार और जनता के बीच दोहरे संचार के लिए एक द्विभाषी पृष्ठ था। दर्पण को उस समय बड़ी प्रतिष्ठा प्राप्त हुई। यहां तक कि उस समय मुंबई से प्रकाशित होनेवाले अंग्रेजी, गुजराती और बंगाली भाषा के समाचार पत्रों में भी दर्पण में प्रकाशित लेख और वृत्त पुनः प्रकाशित होते थे। दर्पण का अंतिम अंक 26 जून 1840 को प्रकाशित हुआ था। बाद में बाल शास्त्री ने दिग्दर्शन मासिक पत्रिका भी शुरू की।
नारी मुक्ति के अग्रदूत
दर्पणकार पुरुषों और महिलाओं के बीच समानता के समर्थक थे। अपने पत्र ‘दर्पण’ में उनके द्वारा नारी मुक्ति पर व्यक्त किये गये विचार उनके प्रगतिशील समाज सुधार विचार के प्रतीक थे। उन्होंने नारीवाद पर प्रतिबंध का स्वागत किया, विधवा पुनर्विवाह का समर्थन किया।
उन्होंने सही पहचाना कि महिलाओं की अवनति का मुख्य कारण शिक्षा का अभाव था। उन्होंने सती प्रथा, बाल विवाह, बाल विधवा पुनर्विवाह, बालहत्या जैसे सामाजिक मुद्दों के लिए भी काफी प्रयास किए। 6 जून, 1834 को दर्पण में दुराग्रही ‘चालीवर झोड’ शीर्षक से एक पत्र लिखा। इसमें नारी शिक्षा के विचारों को स्पष्ट रूप से प्रस्तुत किया तो 1867 के एक अंक में उन्होंने बाल विधवाओं की समस्या पर अपने विचार कुशलतापूर्वक प्रस्तुत किए हैं। उनके नारी मुक्ति संबंधी विचारों का समग्रता से अवलोकन कर हम उनके उन्नत सामाजिक विचारों का वास्तविक ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं।
पत्रकारिता : शैली और अभिव्यक्ति
आचार्य बालशास्त्री जाम्भेकर के समाचार पत्र लेखन की अभिव्यक्ति जीवंत और प्रवाहपूर्ण है। उनकी शैलीगत अभिव्यक्ति में विभिन्न विशेषताएँ हैं। बालशास्त्री जाम्भेकर ने दर्पण में सत्य और निष्पक्षता पर जोर दिया। उनके अनुसार, जो लोग शुद्ध मनोरंजन चाहते हैं वे दर्पण की छोटी-छोटी चीजों से संतुष्ट होंगे। सतार का सती प्रकरण हो, विधवा महिलाओं के पुनर्विवाह का प्रश्न हो या जातिगत भेदभाव का प्रश्न हो, आचार्य बालशास्त्री की कलम ने तलवार का रूप लेकर तीखा विश्लेषण किया।
विचारों की निर्भीकता जाम्भेकर की शैली की एक और पहचान थी। जाम्भेकर ने पत्रकारिता के सर्वोत्तम संकेतों और मूल्यों को सोच-समझकर संरक्षित किया। जाम्भेकर ने उपयोगितावादी और उदारवादी दृष्टिकोण से स्वतंत्र रूप से सोचा और उन्नत विलायती समाज के नये विचारों को अपनी भाषा में अपने पाठकों के सामने प्रस्तुत करने का प्रयास किया। बालशास्त्री जाम्भेकर महाराष्ट्र में अंग्रेजी अभ्यास में ज्ञान की नई रोशनी हैं। अंग्रेजी शासन के शुरुआती दिनों के एक उच्च शिक्षित, विद्वान व्यक्ति आचार्य बालशास्त्री जाम्भेकर थे।
भारत में प्रथम प्रोफेसर होने का गौरव वर्ष 1834 में बाल शास्त्री को प्राप्त हुआ। शिक्षा विभाग के निदेशक बने। उन्होंने विभिन्न विषयों पर पुस्तकें भी लिखीं। इसमें मुख्य रूप से भूगोल, इतिहास, भौतिकी, गणित, खगोल विज्ञान, मनोविज्ञान आदि विषय शामिल हैं। इसके साथ ही उन्होंने बालव्याकरण, भूगोलविद्या, सारसंग्रह और नीतिकथा नामक चार पुस्तकें भी लिखी हैं। उन्होंने एल्फिंस्टनकृत हिंदुस्तान के आधार पर इतिहास रचा। हिंदुस्तान का प्राचीन इतिहास यह ग्रंथ 1851 में उनकी मृत्यु के बाद प्रकाशित हुआ। उनके रचनात्मक कार्यों ने महाराष्ट्र में सार्वजनिक जीवन को एक नया मोड़ दिया। अपने महत्वपूर्ण कार्य के कारण बालशास्त्री को मराठी में प्रथम संपादक होने का गौरव प्राप्त हुआ।
192 वर्ष पहले आचार्य बालशास्त्री ने दर्पण रूपी सामाजिक जागरूकता का पौधा रोपा था, जो आज काफी बड़ा हो चुका है। महाराष्ट्र में समाचार पत्र क्षेत्र में अभूतपूर्व क्रांति इसका प्रमाण है। आचार्य बालशास्त्री के इस महान कार्य को शतश: प्रणाम…
Post Comment