उदात्त जीवन की ओर (भाग-1)

उदात्त जीवन की ओर (भाग-1)

हम सभी जानते हैं कि विद्यालयों में विभिन्न क्षेत्रों के महापुरुषों की जयंतियाँ या पुण्य तिथियाँ मनाई जाती हैं। ज्ञान-विज्ञान, समाज, शिक्षा, साहित्य, संस्कृति, धर्म-दर्शन, राजनीति आदि के क्षेत्र में ऐसे हजारों-लाखों महान व्यक्ति हुए हैं, जिनको उनकी जयंतियों तथा पुण्य तिथियों के अवसरों पर याद किया जाता है और बच्चों के कोमल मन पर यह अंकित करने का प्रयास किया जाता है कि उन्हें भी इन महापुरुषों का अनुकरण करना चाहिए, लेकिन विश्व के इतिहास पर दृष्टिपात करें तो यह स्पष्ट होता है कि विभिन्न क्षेत्रों में जितने भी महापुरुष हुए, उनमें एक जैसे दो महापुरुष कभी और कहीं भी नहीं हुए। महापुरुष ही नहीं, सामान्यतः कोई भी एक जैसे दो व्यक्ति नहीं मिलते, इसलिए यह कहा जाता है कि सृष्टिकर्त्ता विधाता रूपी कुम्हार जिस सांचे से एक व्यक्ति को बनाता है, उसे वह तोड़ देता है। हरेक व्यक्ति के लिए वह एक नया साँचा गढ़ता है, इसलिए कोई भी दो व्यक्ति एक जैसे नहीं होते। विधाता रूपी कुम्हार के रूपक पर ध्यान नहीं भी दें तो भी, यह स्पष्ट है कि न तो अनेक राम हुए, न अनेक बुद्ध हुए, न ही अनेक शिवाजी हुए, न अनेक महात्मा गांधी; ये सभी एक-एक ही हुए।

तो फिर प्रश्न उठाता है कि हमें क्यों सुनाई जाती हैं महापुरुषों की कहानियाँ, और हम क्यों सुनें उनके जीवन वृतांत? जब आज तक कोई दूसरा राम नहीं हुआ, कोई दूसरा बुद्ध नहीं हुआ तो अब कैसे कोई सुभाष या पटेल या गांधी हो सकता है? फिर हम क्यों पढ़ें या सुनें इनकी कथाएँ?

यहाँ एक घटना की याद आ रही है। एक बार एक कन्या विद्यालय में एक वक्ता महोदय, भारतीय वीरांगनाएं नामक विषय पर भाषण दे रहे थे। भाषण के अंत में उन्होंने कन्याओं से प्रश्न पूछने को कहा। सामान्यत: ऐसे समय छात्र प्रश्न नहीं पूछते हैं। अब लंबे चौड़े भाषण सुनने में छात्रों की कोई विशेष रुचि नहीं होती, वे ऊब जाते हैं। फिर भी बहुत कहने पर एक छात्रा ने साहस किया और खड़ी हो गई। उसने पूछा, मैं झांसी की रानी बनना चाहती हूँ। लेकिन कैसे बन सकती हूँ? न तो मैं रानी हूँ और न अब मैं रानी बन सकती हूँ। अब अपने देश में कोई राजा-रानी बन भी नहीं सकता और समझो कि यह अनहोनी हो भी जाए कि मैं रानी बन जाऊँ, तो भी मैं लडूंगी किससे? अंग्रेज तो अब यहाँ भारत में है ही नहीं? अब यहाँ उनका राज्य ही नहीं है।

उस छात्रा का यह प्रश्न सुन कर पूरे सभागृह में हंसी फूट पड़ी। वक्ता महोदय भी मुस्कराने लगे। क्षण भर बाद वक्ता ने हाथ उठा कर छात्राओं को शांत हो जाने के लिए कहा और फिर बोलने लगे, इस बेटी को में साधुवाद देता हूँ। इन्होंने बहुत अच्छा प्रश्न पूछा है। दूसरी बात यह है कि इन्होंने प्रश्न पूछने का साहस किया है, जबकि यह प्रश्न अनेक छात्राओं के मन में भी हो सकता है।

लेखक- डॉ. केशव प्रथमवीर
पूर्व हिंदी विभागाध्यक्ष
सावित्रीबाई फुले पुणे विद्यापीठ

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