स्वामी विवेकानंद की पुण्यतिथि पर विनम्र अभिवादन!

स्वामी विवेकानंद की पुण्यतिथि पर विनम्र अभिवादन!
आज, 4 जुलाई, जब समूचा देश स्वामी विवेकानंद की पुण्यतिथि पर उन्हें श्रद्धांजलि दे रहा है, तब हमारे हृदय में केवल सम्मान नहीं, बल्कि एक गहरा आत्ममंथन भी होना चाहिए। यह दिन केवल पुष्पांजलि अर्पित करने या दो ट्वीट करने का अवसर नहीं है- यह दिन है स्वामीजी के विचारों की लौ को अपने भीतर जलाए रखने का।
स्वामी विवेकानंद ने जीवनभर मनुष्य मात्र की सेवा को धर्म से श्रेष्ठ माना। उन्होंने भारत के संतुलित, सहिष्णु और जागृत आत्मा की बात की – जहाँ धर्म का अर्थ था मानवसेवा, आत्मानुशासन और सार्वभौमिक करुणा। उन्होंने रामकृष्ण परमहंस से सीखा था कि जिसे तुम ईश्वर कहते हो, वह दरअसल हर भूखे, हर दुखी, हर मानव में निवास करता है। यही कारण था कि उन्होंने अपने जीवन का उद्देश्य बना लिया – नर सेवा ही नारायण सेवा है।
मगर आज जब हम स्वामी विवेकानंद की पुण्यतिथि मना रहे हैं, तो हमारे सामने एक कड़वा सच खड़ा है। आज का भारत उनके सपनों के एकदम उलट खड़ा दिखाई देता है। उन्होंने जिस भारत को विश्वगुरु कहा था, वह भारत आज जाति, धर्म, भाषा और संप्रदाय की दीवारों में बँटा खड़ा है।
स्वामीजी ने कहा था – जो धार्मिक होता है, वह दूजे धर्म से कभी वैर नहीं रखता पर आज धर्म को राजनीति की ढाल बना दिया गया है। जिनके कंधों पर देश की एकता और अखंडता की ज़िम्मेदारी है, वे ही नफरत को भाषणों में, प्रचार में और सत्ता की सीढ़ी के रूप में इस्तेमाल कर रहे हैं।
दुर्भाग्य यह है कि यही नेता आज बड़े मंचों पर खड़े होकर स्वामीजी को याद करेंगे, उनकी तस्वीरों पर मालाएं चढ़ाएँगे और कल से फिर वहीं नफरत की ज़हरबुझी राजनीति शुरू कर देंगे।
स्वामी विवेकानंद का धर्म धर्मनिरपेक्षता था – उनका हिंदुत्व एक उदार, सहिष्णु और समन्वयवादी हिंदुत्व था, जिसमें किसी दूसरे मत, मज़हब या विचार के लिए भी उतनी ही जगह थी जितनी अपने लिए।
आज ज़रूरत है स्वामी विवेकानंद को याद करने की नहीं, उनके बताए रास्ते पर चलने की।
ज़रूरत है उनकी उठो, जागो और तब तक मत रुको जब तक लक्ष्य की प्राप्ति न हो वाली पुकार को सिर्फ भाषणों में नहीं, नीतियों में, समाज में और दिलों में उतारने की।
यदि सचमुच हम स्वामीजी के अनुयायी बनना चाहते हैं, तो हमें मानवता, समानता और प्रेम का रास्ता अपनाना ही होगा और धर्म के नाम पर हो रहे पाखंड, नफरत और हिंसा को पूरे साहस के साथ ठुकराना होगा।
स्वामी विवेकानंदजी को सच्ची श्रद्धांजलि यही होगी कि हम उनके विचारों को सिर्फ याद न करें, बल्कि उस दीप को लेकर चलें, जो अंधकार से नहीं, इंसानियत की लौ से प्रकाशित होता है।