21/06/2025

धरती माता (व्यथा-कथा)

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Satyedra Singh

धरती माता (व्यथा-कथा)

जैसे ही मुकुंद फ्लैट में घुसे तो पत्नी ने पानी का गिलास हाथ में देते हुए कहा कि बच्चे कहते रहते हैं कि अपना घर कब होगा। कुछ कीजिए न। मुकुंद सपरिवार किराए के एक फ्लैट में रहते थे। वह निजी कंपनी में काम करते थे। उनकी पत्नी सुनाम्या घर संभालती थी मतलब गृहिणी थी। उनके दो बच्चे थे, बेटा दस वर्षीय अक्षय और बेटी आठ वर्षीय आम्या। अक्षय चौथी और आम्या दूसरी कक्षा में पढ़ती थी। छोटा परिवार सुखी परिवार। बच्चे स्कूल में तरह तरह की बातें सुनते हैं और उसी प्रकार घर में अपनी मांग रखते हैं। दोनों बच्चों की क्लास में अक्सर घर की चर्चा होती। जो अपने घर में रहते वे अपने पर गर्व करते। किराए पर रहने वालों को कुछ अजीब सी दृष्टि से देखते। इसका अक्षय और आम्या दोनों को अपमानजनक सा लगता। वे मन ही मन धरती माता से प्रार्थना करते कि अपने एक टुकड़े पर हमारे लिए भी घर बना कर दे दो। उन्होंने सुन रखा था कि धरती माता सबकी माता है और सबकी सुनती है।

दोनों बच्चे घर आकर मां से कहते कि मां हमने धरती माता से प्रार्थना की है कि हमें अपने एक टुकड़े पर अपना घर बना कर दे दे। मां कहती कि घर में रह तो रहे हो, अपना और किराए का क्या। बच्चे कहते नहीं मां जिनका अपना घर होता है वे किराए वालों को नीची निगाह से देखते हैं। चाहती तो सुनाम्या भी थी कि अपना घर और पति से कहती भी रहती थी कि छोटा ही सही पर अपना घर होना चाहिए। अपना घर अपना ही होता है। उसने मुकुंद को बच्चों की मांग दोहराई। मुकुंद मुस्कराते हुए बोले, सुनाम्या क्या मैं नहीं चाहता कि अपना भी घर हो। बस धरती माता जगह दे दे।

एक जमीन पर प्लॉट बिकने की एक विज्ञप्ति अखबार में छपी थी। उसे लेकर मुकुंद का एक दोस्त उसके पास आया और कहने लगा, यार इस जगह पर प्लाटिंग हो रही है। चलो हम एक एक प्लॉट खरीद लेते हैं। धीरे धीरे घर भी बन जाएगा। कब तक किराया भरते रहेंगे। काम खत्म होने पर दोनों अखबार में छपे पते पर गए। डेवलपर ने प्लॉट दिखाए और जमीन के बारे में कई आश्वासन दिए। उसने घर बनाने के लिए कर्ज दिलाने में मदद करने का वादा भी किया। मुकुंद और उसका दोस्त दोनों खुश हो गए। घर आकर सुनाम्या को बताया तो बहुत खुश हुई और बच्चे तो उछल पड़े और धरती माता को धन्यवाद देने लगे। मुकुंद ने अपनी बचत और सुनाम्या ने अपने कुछ जेवर की बलि देकर प्लॉट खरीद लिया। डेवलपर ने एक निजी बैंक से कर्ज भी दिलवा दिया। यूँ एक साल के अंदर घर बन गया। धीरे-धीरे तीस चालीस घरों की एक कालोनी बन गई।

बच्चों का एडमिशन इस कालोनी के पास ही बने एक नये स्कूल में हो गया। स्कूल ज्यादा दूर न होने से बच्चे पैदल ही स्कूल जाते आते। सब कुछ ठीक चल रहा था। यहां रहते हुए भी तीन चार साल हो गए थे। एक दिन बच्चे स्कूल से घर आ रहे थे तो उन्होंने देखा कि उनकी कालोनी में काफी शोर शराबा है और घरों से धूल उड़ रही है। नजदीक जाने पर देखा कि उनके घर को वुलडोजर से तोड़ा जा रहा है। दोनों बच्चे दहाड़ मार कर रो पड़े। थोड़ी दूर खड़े मां-बाप भी रो रहे थे। आम्या मां का हाथ पकड़ कर चिल्लाने लगी कि मां हमें जगह धरती माता ने दी थी न, फिर ये लोग क्यों घर को तोड़ रहे हैं। सुनाम्या ने बेटी को गले से लगाया तथा और जोर से रो पड़ी, हां बेटी धरती माता ने ही जगह दी थी पर अब वो हमसे रूठ गई है। जिन्होंने वहां घर बनाए वे सभी रो रहे थे। कोई रोते-रोते तोड़ने वालों को गाली देता, कोई चिल्लाता पर किसी की समझ में कुछ नहीं आ रहा था। आम्या मां-बाप की ओर देखते हुए रो रही थी और कहती जा रही थी कि अब हम कहां रहेंगे? धरती माता रोक क्यों नहीं रही इन्हें। और, सुनाम्या यह कह कर बेटी को सांत्वना दे रही थी कि यह जगह धरती माता की नहीं, इन लोगों की है। और रो पड़ी, हे धरती माता!

Satyedra-Singh-185x300 धरती माता (व्यथा-कथा)
-डॉ. सत्येंद्र सिंह, पुणे, महाराष्ट्र

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