कृषि क्षेत्र : कल, आज और कल
1 जुलाई को ‘कृषि दिवस’ हर साल महाराष्ट्र में मनाया जाता है। ‘कृषि दिवस’ महाराष्ट्र में हरित क्रांति के जनक वसंतराव नाईक के जन्मदिन पर मनाया जाता है। वे राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री थे, जिन्होंने कृषि क्षेत्र को आगे बढ़ाने में मदद की। प्रस्तुत है इस अवसर पर यह लेख…
कृषि हमारे देश का मुख्य माध्यम है जो कि हमारे वित्तीय, सामाजिक तथा अन्य क्षेत्र के लिए करता है। हमारे भारत देश में कृषि को एक उत्सव माना जाता है। प्रकृति एवं पर्यावरण की रक्षा के दायित्व का निर्वहन जिसमें पेड़, नदी, पहाड़, पशु, पक्षी, जीव-जंतु की रक्षा करना, जीवन के महत्वपूर्ण कार्यों में से एक है। आध्यात्मिक कार्य का एक हिस्सा भी है।
भारत की वित्त व्यवस्था में कृषि की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। भारतीय संस्कृति में रीति-रिवाज, संस्कार आदि सब खेती-कृषि से जुड़े हुए हैं, लेकिन आज तक हम सभी किसान की सही पहचान नहीं कर पाये हैं। केवल जिसकी खुद की जमीन होती है, या फिर जो हल जोतते हैं, वे किसान हैं। धनी किसान वे किसान हैं जो ग्रामीण उत्पादन के साधन रखते हैं। किसान, कृषक वह होता है जो खेत में श्रम करता है। वह खेती से ज्यादा आय प्राप्त करता है। इस तरह हम किसान की परिभाषा करते हैं, लेकिन इससे भी परे किसान की पहचान यह है कि वह भारत के वित्त व्यवस्था का मुख्य स्रोत है।
स्वतंत्रता से पहले खेती ही भारत के आत्मनिर्भर होने का मूल आधार थी, लेकिन अंग्रेजों ने भारत की अर्थव्यवस्था को नष्ट करने के लिए भूमि व्यवस्था को बदलकर जमींदारी प्रथा प्रारंभ की। इस कारण वास्तविक किसान लगातार गरीब होते रहे। खेती पर देश की आत्मनिर्भरता नष्ट होती रही। भारत में किसान आंदोलन का लगभग दो सौ वर्षों का इतिहास है। 19 वीं शताब्दी में बंगाल का संथाल एवं नील विद्रोह तथा मद्रास एवं पंजाब में किसान आंदोलन इसके उदाहरण हैं। भारतीय किसान आंदोलन की राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका रही है। किसान आंदोलन तथा राष्ट्रीय आंदोलन का अनोखा बंधन था। 1917 में नील कृषकों ने बिहार के चंपारण जिले में गांधीजी के नेतृत्व में चलाया गया किसान संघर्ष देश का राजनीतिक दृष्टि से पहला संगठित आंदोलन था। वर्ष 1920 से 1932 के दरम्यान पंजाब तथा बिहार में हुए अधिकांश आंदोलन, मध्यवर्गीय संपन्न कृषकों द्वारा चलाये गये थे। विश्व आर्थिक संकट 1925-30 फलस्वरूप किसान की स्थिति निरंतर बिगड़ती चली गई। मंदी के कारण कृषि उपजों की कीमत काफी गिर गई थी। इसी स्थिति ने किसान को संघर्ष करने पर मजबूर किया। इसी वातावरण में वर्ष 1930 में सिविल नाफरमानी आंदोलन छेड़ा गया। 1937 से 39 तक किसान आंदोलन के उत्कृष्ट वर्ष थे। किसानों में जागरूकता पैदा करने का मुख्य माध्यम था तहसील, जिला स्तर पर किसान सभा या किसान सम्मेलन का आयोजन।
स्वतंत्रता से पहले और पश्चात भारत में एक काफी समय बीतने के बाद भारतीय किसानों की दशा में सिर्फ 19-20 का ही अंतर दिखाई देता है। समृद्ध किसानों की गिनती उंगलियों पर की जा सकती है। आज भी खेती किसानी गहरे संकट में है। खेती के विकास की हरित क्रांति का किसानों को कुछ हद तक लाभ होता दिखाई देता है। भारत की पहचान उन्नत खेती तथा खेती से जुड़े उद्योगों, कलाओं, उत्पादों और कारोबारों से थी, वहीं स्वतंत्रता के बाद प्राथमिकता उद्योग और उससे जुड़े तकनीकी विकास एवं व्यवसाय हो गए। इसमें खेती पर संकट उत्पन्न होने के अलावा किसानों को भी संकटग्रस्त होना पड़ा।
वर्ष 1950 में हिंद किसान पंचायत के प्रथम राष्ट्रीय अधिवेशन के अध्यक्षीय भाषण में लोहिया ने नये परिवेश में किसान आंदोलन के लिए निम्न लक्ष्य बताए। जमीन जोतने वालों को तुरंत सरकारी आदेश देकर जमीन दी जाए, परती जमीन के लिए भूमि समूह बनाया जाए, छोटी मशीनों द्वारा औद्योगिकीकरण किया जाए, जमीन का पुनर्वितरण हो और प्रत्येक परिवार को 20 बीघा जमीन और ग्राम मिले।
किसान और उसकी चुनौतियां…
आज देश में खेती का योगदान कुल अर्थव्यवस्था में 14 प्रतिशत के लगभग होने पर भी इससे करीब 50 प्रतिशत लोगों को रोजगार मिल रहा है, लेकिन भारत में अभी तक खेती और किसान को अर्थनीति में जितना महत्व मिलना चाहिए था, वह नहीं मिल पाया है। भारत की रचना ऐसी है कि जब तक खेती संकट से नहीं निकलेगी, किसान खुशहाल नहीं हो सकता। किसानों की बदहाली का अंदाजा इस कर्ज पर लगाया जा सकता है। कई बार किसान खुद को जमीन में गाड़कर विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं। पिछले लगभग 20-22 वर्षों से भारत के किसान निरंतर आत्महत्या किये जा रहे हैं। वर्ष 1998 में किसानों द्वारा की गई आत्महत्या विदर्भ, महाराष्ट्र के बाद आंध्र प्रदेश और अन्य राज्यों में भी किसान आत्महत्या बढ़ती जा रही है। अब तक वर्ष 2022 तक कृषि क्षेत्र में अनेक गतिविधियां घटित होती रहीं। किसानों की आत्महत्या की घटनाएं निरंतर होती रहती हैं। यह बहुत ही चिंताजनक है। भारत ने कृषि क्षेत्र और अनाज उत्पादन में सुधार के लिए अनेक पहल की हैं। भारतीय संसद में पेश किए गए आर्थिक सर्वेक्षण 2017-18 के अनुसार 2017-18 में कृषि उद्योग 2.1% पर बढ़ने का अनुमान था। सर्वेक्षण में यह भी संकेत दिया गया था कि सरकार ने वर्ष 2022 तक किसानों की आय दोगुना करने का इरादा रखा था, जिसके लिए उसने पहले से ही विभिन्न नई पहलों की शुरुआत की थी जो काफी कारगर साबित हुई हैं। हरित क्रांति (1960) से लेकर विभिन्न गरीबी उन्मूलन कार्यक्रमों तक भारत कृषि प्रौद्योगिकी में लगातार विकास कर रहा है। हालांकि, भारतीय किसानों में से केवल एक तिहाई ने उन्नत प्रौद्योगिकी अपनाई है। शेष कृषि नवाचारों और खेती के आधुनिक तरीकों से अवगत नहीं है जो अच्छी फसल पैदावार और गुणवत्ता का कारण बन सकते हैं। एक कृषि देश होने के नाते, भारत विकास के उस स्तर तक पहुंच गया है जहां यह सदाबहार क्रांति की मांग करता है यानी कम प्राकृतिक संसाधन पानी, जमीन और ऊर्जा के साथ अधिक उत्पादन करना आदि।
सिंचाई तथा जल आपूर्ति, प्रबंधन भारत में जल वितरण अनिश्चितताओं से भरा हुआ है, स्थानीय समुदायों में पानी झगड़े का कारण बन सकता है। शुरुआती फसल के विकास के दौरान पानी की कमी से उत्पादन में कमी या पूरे उत्पादन की विफलता हो सकती है। बदलते मौसम के दौरान फसल की जरूरतों को पूरा करने के लिए, अतिरिक्त पानी की आपूर्ति कृत्रिम रूप से की जानी चाहिए। सिंचाई जल आपूर्ति संवर्धन और वर्षा जल संचयन की स्थापना करके फसल के लिए आवश्यक पानी की मात्रा की आपूर्ति कर सकते हैं।
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