हृदय में आमजन के लिए पीड़ा होने पर ही कविता फूटती है : मयंक श्रीवास्तव
हृदय में आमजन के लिए पीड़ा होने पर ही कविता फूटती है : मयंक श्रीवास्तव
उक्त उद्गार सुप्रसिद्ध गीतकार मयंक श्रीवास्तव ने डॉ. सत्येंद्र सिंह से बात करते समय व्यक्त किए। अपना परिचय देते हुए मयंक जी ने कहा कि मेरा नाम मयंक श्रीवास्तव है यह मेरा कवि नाम है परंतु मेरा मूल नाम है सुरेश चंद श्रीवास्तव है और मैं जिला आगरा की एक तहसील फिरोजाबाद एक गांव ऊँदनी का रहने वाला हूँ, वहीं पर मेरा जन्म 11 अप्रैल 1942 को हुआ था । आज तो फिरोज़ाबाद भी एक जिला बन गया है । मैं 1960 में ही माध्यमिक शिक्षा मंडल मध्य प्रदेश की सेवा में आ गया था । मैं केवल और केवल छंद लिखता हूँ और छंद ही लिखा है। मेरे 6 गीत संग्रह, एक गीतिका संग्रह जिसको गजल कहते हैं प्रकाशित हुए हैं। कुल 7 संग्रह प्रकाशित हुए हैं। इस तरह मैं गीत के लिए जिया और मैं आज भी गीत के लिए जीता हूँ।
यह पूछने पर कि वे अपने लेखन के लिए किससे प्रेरित हुए, किसी से प्रेरित होकर रचना शुरू की, इसके उत्तर में मयंक जी कहते हैं कि मेरा जन्म गरीब घर में हुआ, दीनता और दरिद्रता में जिया हूँ। गरीबी क्या होती है, निर्धनता क्या होती है इसे बहुत नजदीक से देखा है और उसी जीवन में स्वयं को तथा अन्य लोगों को देखकर उपजी पीड़ा से ही मेरे हृदय से कविता व गीत फूट निकले। मैं किसी को अपनी लेखन प्रेरणा नहीं मानता लेकिन मेरे अंदर की जो पीड़ा है, जो दर्द है वही मेरी प्रेरणा है,मैं ऐसा मानता नहीं हूँ। लेकिन किसी का भी गुरु होना चाहिए, कहीं से प्रेरणा मिलनी चाहिए, यह मैं मानता अवश्य हूँ। मेरा यह मानना है कि जितनी गहरी पीड़ा होगी उतना ही अच्छा गीत निकल कर आता है और मैंने यह मेरे एक बहुत बड़े गीतकार रामावतार त्यागी से जाना जिन्होंने मेरे पहले गीत संग्रह के लिए शुभकामना भेजते समय लिखा था – “तुम्हारा मार्ग अधिक से अधिक कंटकाकीर्ण है। तुम कंटक वाले रास्ते पर चलते रहो और तुमको कोई जीवन में ऐसा हकीम न मिले जिसकी झोली में तुम्हारे घावों के मुआफिक मरहम मौजूद हो।” साथ ही उन्होंने एक मुक्तक भी लिखा, जो मुझे बहुत बहुत पसंद है और उसको सुनाता भी हूँ, “यह दर्द का अनमोल धन, होता न सबके भाग में, जल में कहां वह जिंदगी, जो जिंदगी है आग में, पूरी तरह टूटे बिना, दुख का मजा आता नहीं, आधी तड़प से गीत भी, पूरा लिखा जाता नहीं”। यह मेरे गीत पढ़कर उन्होंने लिखा था तो आप समझ गए होंगे कि मेरे जो गीतों का मूलाधार है वह एक आम आदमी की पीड़ा है, आम आदमी का दर्द है और मैं अपने गीतों में आम आदमी के दर्द को ही गाया है। मैंने गांव के परिवेश के गीत ज्यादा लिखे हैं। गांव के अलावा शहर के संत्रास तो बहुत लोगों ने नई कविता में लिखा बहुत लेकिन गीतों में नहीं लिखा गया । नई कविता में भी नहीं लिखा गया तो मेरे जो गीत हैं मुख्य रूप से ग्रामीण परिवेश के है, जहाँ पर जिस तरह दबंग लोग निर्धनों को गुलाम बनाते थे, दबाते थे तो मैं उनकी पीड़ा को अपने गीतों में लाया हूं और यही मेरा मूल आधार है ।
मयंक जी से यह पूछा गया कि गीत और नवगीत की दोनों विधाओं में आप लिखते हैं तो इनमें अंतर क्या है , तो मयंक जी ने कहा कि
ऐसा है कि मैं स्वयं भी गीत अगीत और नवगीत के अंतर को नहीं समझता था और मैं रामावतार त्यागी से बहुत ज्यादा प्रभावित रहा हूँ और उनके बड़े-बड़े लंबे छंद हुआ करते थे और मेरा जो पहला गीत संग्रह आया “सुरज दीप धरे” उसमें पूरी तरह से पारंपरिक गीत है, व्यक्ति परक भी हैं। पहली बात तो यही है कि पहले जो पारंपरिक गीत लिखे जाते रहे हैं वे नितांत व्यक्ति पर लिखे जाते रहे हैं या प्रेम पर लिखे जाते रहे हैं, विरह गीत लिखा जाता है संत्रास लिखा जाता है, परंतु उसमें वर्तमान समय की कोई बात नहीं थी । लेकिन जो नवगीत है उसमें क्या है- नवीनता है, नई काव्य अवधारणा है, नया शिल्प है, नया छंद है और उसमें वर्तमान बोलता है।पहले तो व्यक्तिगत पीड़ा हुआ करती थी पारंपरिक गीत में, इसलिए नवगीत की आवश्यकता हुई, जिसमें कि आज की बात की जाए और नई बात की जाए, जिसमें तुक भी हो , नई परिकल्पना हो, उसको ही नवगीत कहा जाता है।
मयंक जी, आह से निकला होगा गान यह पंक्ति तो आपने सुनी होगी और जब वाल्मीकि ने जब क्रोंच पक्षी का वध देखा तब उनके मुंह से छंद फूट निकला जिसे नारद जी ने अनुष्टुप छंद कहा था तो अभिव्यक्ति पहले हुई या छंद पहले हुआ, इसके बारे में आप क्या कहना चाहेंगे। मयंक जी ने छंद के बारे में बताते हुए एक अपना मुक्तक सुनाया — “——“
इसी को सब जगह सुनाता हूँ। बाकी तो शोध का विषय है । और आप जो पूछ रहे हैं वह इतना छोटा विषय नहीं है, बहुत गहराई वाला विषय है और बहुत कुछ कहने वाला विषय है। छोटा-मोटा व्यक्ति इसमें ज्यादा बात नहीं कर सकता । मैं आपको यह बताता हूँ कि मैं गीत क्यों पसंद करता हूँ वह सुनाता हूँ-
“स्वर्ग के गांव घूम आता हूँ
सुख के सागर में डूब जाता हूँ
अपने ईश्वर से भेंट हो जाती
जब कोई गीत गुनगुनाता हूँ।”
एक प्रश्न कि वाल्मीकि जी के हृदय में एक पीड़ा, एक करुणा जाग्रत हुई उसीसे छंद की रचना हुई तो क्या ऐसी कोई घटना आपके जीवन में हुई जिससे आपके लेखन में वह करुणा जागृत हुई हो, के उत्तर में मयंक जी कहते हैं कि मेरी पीड़ा का केंद्रबिंदु किसान है। मैं अपने ही गांव में देखता था एक किसान जो अन्न उगाता है, अन्नदाता है और एक महाजन होता है, जो ब्याज पर पैसे देता रहा, कर्ज देता रहा किसान को और जब किसान का खलिहान में अन्न आया तो वह सीधा किसान के घर में न जाकर उस महाजन के पास पहुंच गया। जिसने मेहनत की पूरे साल भर, उसको उसका सुख नहीं मिला तो उसे देख कर मेरे अंदर पीड़ा उत्पन्न हुई। मेरे गांव में ही जो गरीब लोग थे किसान लोग थे जिनके साथ अन्याय होता था, वह सहन नहीं होता था। मेरे गांव में रामलीला हुआ करती थी तो उसमें गायन वगैरह होता था और उसमें गाए जाने वाले छंद के प्रति मेरे मन में आकर्षण पैदा होना शुरू हो गया था और इस प्रकार की पीड़ा की वजह की दूसरी बात यह भी है कि मेरा जीवन भी बड़ी निर्धनता में बीता और उस निर्धनता का स्वयं भोगा है तो वह भी पीड़ा मेरे अंदर रही।
प्रश्न किया गया कि किसान के बारे में जो आप कह रहे हैं वह तो आज भी हो रहा है और महाजन की जगह दलाल ने ले ली है, इसके लिए क्या कहना चाहेंगे। इसके उत्तर में मयंक जी का कहना है कि यह तो व्यवस्था का प्रश्न है। हम जो आज लिख रहे हैं व्यवस्था के खिलाफ लिख रहे हैं और बड़ी उम्मीद थी कि लोकतंत्र के आने पर, जनतंत्र के आने पर यह व्यवस्था बदलेगी लेकिन बदली नहीं । और ज्यादा भ्रष्टाचार पनप गया। हम जैसे लोग जो देखते हैं, महसूस करते हैं वह लिखते रहेंगे। बाकी काम तो शासन, प्रशासन, सरकार का है।
-डॉ.सत्येंद्र सिंह
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