हम शासक चुनते हैं या प्रतिनिधि

हम शासक चुनते हैं या प्रतिनिधि

हम शासक चुनते हैं या प्रतिनिधि

जब से देश आजाद हुआ है तब से हम हर स्तर पर चुनते आ रहे हैं, प्रतिनिधि या शासक। पहले चुनाव पर विचार कर लिया जाए कि हम किसी को क्यों चुनते हैं, चुनने का उद्देश्य क्या है? जब देश गुलाम होता है तो देश के प्राकृतिक संसाधन, उत्पादन व श्रम उन शासकों की सम्पत्ति बन जाती है, जिनके हम गुलाम होते हैं। आज़ादी का सीधा मतलब है कि प्राकृतिक संसाधनों, उत्पादनों व श्रम पर हमारा ही अधिकार रहता है यानी कि हम ही हम से मतलब आम जन उनके मालिक होते हैं। परंतु सभी प्राकृतिक संसाधन, उत्पादन व श्रम समान नहीं होते और उनका निस्वार्थी, ईमानदार, सेवाभावी और सबको समान समझने वाले लोगों को हम सभी के बीच समान रुप से इन प्राकृतिक संसाधनों, उत्पादनों व श्रम का समान विभाजन करने के लिए चुनते हैं ताकि कोई किसी चीज से वंचित न रहे और भूखा प्यासा न रहे, प्रकृति की मार से अकेला पीड़ित न हो। इसीलिए आज हम जिन्हें चुनते हैं उन्हें जन प्रतिनिधि कहते हैं अर्थात वे हमारे प्रतिनिधि हैं और थोड़ा सा पारिश्रमिक लेकर अपना समय व श्रम हमारे संसाधनों, हमारे उत्पादों-उत्पादनों व श्रम का उचित मूल्य व विभाजन निर्धार्त कर हम लोगों के हितों और जीवन की रक्षा करेंगे।

अब आम जन अर्थात हम लोग तो साधारण जन होते हैं इसीलिए विभाजन की उचित व्यवस्था के लिए समझदारों ने संविधान बनाया, न्याय व वितरण व्यवस्था बनाई, भविष्य के विकास की योजनाएं बनाईं ताकि आम जनों की बढ़ती संख्या और आवश्यकताओं की पूर्ति में बाधा न आए और आम जन पूरे मनोयोग से श्रम कर धन सहित सभी उत्पादन में संलग्न रहे, समझदार जिम्मेदार लोग उनके जीवन यापन के लिए जो कपड़ा, भोजन, छोटे से घर देते हैं उनमें संतुष्ट रहें और अपना काम करते रहें। यहां राजा प्रजा की कोई संकल्पना नहीं है।

चुनाव आते रहते हैं, आम जन काम करते रहते हैं, जीवन यापन की बड़ी-बड़ी मशीनों से लेकर एक कील तक उत्पादन होते रहते हैं। खाद्यान्न शाक सब्जी, मांसाहार के साधन सब पैदा होते रहते हैं। आम जन पसीना बहाते रहते हैं, उत्पादक और संग्रहकर्ता, जन प्रतिनिधि अपने अपने दल बनाकर ऐश करते रहते हैं। जिसको मिलता है वह मजे करता है। जिसको नहीं मिलता वह आंसू पीकर रह जाता है। अपने पड़ोस में कोई भूखा प्यासा मर रहा है कोई न सोचता है और न कोई देखता है। दिखता सबको है, महसूस होता सबको है, पर हमें क्या, कह सोचकर निकल जाते हैं। कहते हैं कि हर प्राणी को ईश्वर ने समान बनाया है तो यह असमानता कहां से आई?

फिर चुनाव आ गए हैं। अबकी बार तो जन प्रतिनिधियों के जो दल छोटे पड़ते थे उन्हें मिला लिया गया है ताकि जन प्रतिनिधि बनने में उनकी जाति, समाज व परिवार के अधिक लोगों को अवसर मिल सके। आम जन सोच रहा है कहां हैं उनके सम्मिलित प्राकृतिक संसाधन, उत्पादन, श्रम जीवन, पेट भरने के गांव से शहर आए, एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश आए। गांव प्रदेश में सब छूट गया, बरबाद हो गया यहां कुछ अपना है नहीं। जाएं तो जाएं कहां। कोई तो बताए कि हम किसे चुनते हैं शासक को या जन प्रतिनिधि को जो हमारी ओर भी देखे।

श्री सत्येंद्र सिंह
(सेवानिवृत्त वरिष्ठ राजभाषा अधिकारी)
‘रामेश्वरी सदन’, सप्तगिरी सोसायटी,
जांभुलवाडी रोड, आंबेगांव खुर्द, पुणे-46

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