क्या… पिता जी चले गये, मगर कब?

क्या... पिता जी चले गये, मगर कब?

क्या… पिता जी चले गये, मगर कब?

आज सुबह ही तो उन्होंने छोटी मां के सामने मेरी जमकर खिंचाई की थी और बोले तुम लोग न घर की देखभाल करते हो न घर के लोगों की। ऐसे तो तुम्हारा धन कोई दूसरा सरलता से चुरा लेगा! हड़प लेगा! धन कमाना आसान है, धन को संभाल कर रखना बहुत कठिन है। अब आज के बाद मैं घर छोड़कर कहीं नहीं जाऊंगा क्योंकि मुझे अब ऐसा लगता है कि तुम लोग मेरी बातों पर विश्वास नहीं करते हो।

अरे! यह क्या? ऐसा कैसे हो सकता है? पिता जी ऐसे कैसे जा सकते हैं?

मुझे याद है जब भी हम लोग कहीं जाते थे तो पिताजी बार-बार बताते थे वहां ताला लगा देना। वह सामान जो कल लाया था, वैसे ही उसी जगह है उसे वहां से उठाकर ऊपर वाले कमरे में रख देना। यह वहां दे देना। यह सामान वहां रख देना।

यहां तक कि बाहर निकलने के बाद भी दो तीन बार घर के सभी तालों को अपने हाथ से हिलाकर परखने के बाद वह खुद बाहर निकलते और बाहर वाले घर को ताला लगाते थे। इसके बाद भी रास्ते में कभी-कभी पूछ लेते थे- अलमारी में ताला लगाया था? अलमारी की चाबी ठीक जगह पर रखी थी?

हम लोगों को अक्सर बताया करते थे -कहीं जाने से पहले किसी भी खराब होने वाले सामान को ठीक से रखना है। कोई भी सामान जो खाने वाला है वह या तो खा लेना है या किसी को दे देना है नहीं तो संभाल कर ऐसे रख देना है जिससे कि वह खराब न हो।

बहुत मान-मनौवल के बाद आज हमारे साथ चलने के लिए सहमत हुए, लेकिन यह क्या भरी दोपहरी में चाभियों का गुच्छा हाथ में लिए हमें बताया तुम लोग चलो, मैं आ रहा हूं! तुम लोग मेरा इंतजार मत करना। मैं थोड़ी देर में पहुंच रहा हूं। मेरी चिंता भी मत करना। तुम लोगों के पहुंचने तक मैं भी वहां पहुंच जाऊंगा।

यह क्या? पूरा घर खुला छोड़कर सब कुछ जहां था जैसे था वैसे ही, ज्यों का त्यों छोड़ कर कैसे चले गये? कहां चले गये? ताला ठीक से लगा है कि नहीं यह जांच करना तो दूर, ताला लगाया ही नहीं। अलमारी भी खुली है। हमें बाहर निकलने से पहले और बाहर निकलकर सब कुछ बंद करने के बाद भी कितना समझाते थे? आज कुछ भी याद नहीं रहा? न घर, न घर वाले, न धन, न दूसरों को दिए गये निर्देश! कुछ याद नहीं रहा? चुप-चाप मुंह और आंखें बंद कर के चल दिये?

लेखक- श्री रामप्रताप चौबे

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