01/07/2025
Sudir Methekar

सामान्यतः मनुष्य जन्म के समय से ही कोई न कोई कर्म करता रहता है। शास्त्रों के अनुसार उस कर्म के तीन भाग होते हैं। हम जानते हैं कि ये सक्रिय कर्म हैं, दूसरा संचित कर्म है और तीसरा प्रारब्ध कर्म है। भगवत गीता में इन तीनों कर्मों का थोड़ा अलग तरीके से विश्लेषण किया गया है। वे इस तरह हैं –

1) निर्धारित कर्म, 2) दिनचर्या कर्म, 3) अनौपचारिक (नैमित्तिक) कर्म।
निर्धारित कर्म
शास्त्र और समाज द्वारा अनुमोदित कर्म। इस संदर्भ में भगवान कृष्ण श्रीमद्भगवद गीता के अध्याय तीन, श्लोक 8 में अर्जुन से कहते हैं :
नियतं कुरु कर्म तत्वं कर्म ज्यायो ह्रकर्मण: ।
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्ध्येदकर्मण:॥8॥
इसका मतलब है कि आपको शास्त्रोक्त कर्तव्यों का पालन करना चाहिए क्योंकि कर्म न करने से कर्म करना श्रेष्ठ है। साथ ही कर्म न करने से आपकी शारीरिक गतिविधियां भी नहीं चलेंगी। कर्म के फल के बारे में सोचे बिना उस कर्म को अधिक से अधिक सटीकता से करना चाहिए।

दिनचर्या कर्म
प्रातःकाल दिन के प्रारम्भ से लेकर अगले दिन तक नियमित रूप से किए जानेवाले कार्यों या अनुष्ठानों को नित्य कर्म कहा जा सकता है। प्रातःकाल उठकर स्नान-कर्म, सायंकाल (तीन काल-प्रातःकाल, मध्याह्न, सायंकाल), जप, होम, स्वाध्याय आदि इन दैनिक कार्यों में संस्कार आते हैं।

अनौपचारिक कर्म
विशेष अवसरों पर किए जानेवाले कर्म को अनौपचारिक (नैमित्तिक) कर्म कहते हैं… जैस- किसी त्यौहार के कारण विशेष पूजा करना, जैसे गणेशोत्सव के दौरान गणेश पूजा, पाडवा पर गुड़ी पूजा, हरितालिका के अवसर पर माता पार्वती पूजा…
इसके अलावा एक और कर्म है वह है ‘काम्य कर्म’
किसी इच्छा को मन में रखकर किया गया कर्म काम्य कर्म कहलाता है। व्रतवैकल्ये, अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए उपवास करना।
लेकिन भगवान कृष्ण कहते हैं कि तुम्हें कोई भी कर्म करने का अधिकार है, लेकिन उसके फल की आशा मत करो! साथ ही कर्म न करने का आग्रह न करें। क्योंकि फल की आशा से किए गए कर्मों का फल न मिलने पर मन दुःखी और कठिन हो जाता है!
(कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि ॥2.47॥)

श्री सुधीर मेथेकर
(वरिष्ठ पत्रकार)

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