स्वतंत्रता के सही मायने
आजादी के अनचाहे कई खतरे होते हैं। जैसे कोई पक्षी का बच्चा जब अपने घोंसले में से पहली बार उड़ता है तो बाहरी पक्षियों एवं जीव-जन्तुओं से पर्याप्त समस्याओं को झेलते हुए या तो उन्मुक्त होकर उड़ना सीख जाता है या सीधे गर्त में जा गिरता है। किसी राष्ट्र के तौर पर आजादी का अर्थ सामान्यतः व्यक्तिगत अथवा सिमित होता है। हमारे देश के संदर्भ में ‘स्वतंत्रता’ शब्द ‘आज़ादी’ के अपेक्षा कहीं अधिक समीचीन ठहरता है।
देश और काल के अंतर्गत बहुत सारे शब्दों के मायने बदल जाते हैं। हमारे देश में भी ‘स्वतंत्रता’ शब्द का अर्थ-संकोच हुआ है। स्वतंत्रता दिवस यानी 15 अगस्त, जो प्रत्येक वर्ष आता है और इस दिन प्राय: राष्ट्रीय ध्वज फहराकर उन क्रांतिकारियों को याद किया जाता है अथवा उनके अमर बलिदान से संबंधित गीत गाये जाते हैं, जो हंसते- हंसते शहीद हो गये थे। तदंतर मिष्ठान वितरण होता है और फिर रोजमर्रा के जीवन में लोग-बाग व्यस्त हो जाते हैं। स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर ‘वभाज़न की विभिषिका’ विषय पर संगोष्ठीयों का चलन बढ़ा है, लेकिन क्या ‘स्वतंत्रता’ के यही मायने हैं?
आजादी की पहली सुबह को हमारे देश में अंग्रेजी के समाचार पत्रों ने ‘इंडीपेंडेंस’ नाम दिया और हिंदी के समाचारपत्रों नें ‘स्वाधीनता’ जो कि इंडिपेंडेंस का ही हिंदी रूपांतरण है, लेकिन इंडिपेंडेंस का सामान्य अर्थ होता है- ‘अनधीनता’ यानी किसी के अधीनता का अभाव। जबकि हिंदी के समाचारपत्रों ने अधीनता की जगह ‘स्वाधीनता’ शब्द का प्रयोग किया। ‘स्वाधीनता’ का अर्थ होता है- स्व के अधीन। इस प्रकार देखा जाये तो हम ब्रिटिश हुकूमत के अधिनता को अस्वीकार कर स्व के अधीन हो गये जो कि आपको संकुचित मालूम पड़ता होगा, लेकिन ऐसा नहीं है। कोई भी भाषा भावनाओं की संवाहक होती है, जिसका उदाहरण उक्त में इंडिपेंडेंस का सही अनुवाद अनधीनता न करके हिंदी समाचार पत्रों नें स्वाधीनता या स्वतंत्रता शब्द कर दिया।
स्वाधीनता में ‘स्व’ का जो उपसर्ग लगा है वह अनायास नहीं है, उसका कैनवास वृहद एवं विस्तृत है। यहां ‘स्व’ का अर्थ हमारे देश की परंपरा, हमारे देश की संस्कृति एवं हमारे यहां के उत्कृष्ट जीवन मूल्य से है। हम उसके बंधन में बंध गये, हमें उसके हिसाब से चलना होगा। अपनी परंपरा, संस्कृति तथा अपने जीवन मूल्य स्वयं निर्धारित करने हैं एवं उसकी रक्षा भी स्वयं करनी है। हमारी परंपरा दूरदेश में रहकर अपने ही मां अथवा पिता की अंत्येष्टि क्रिया कर्म में ऑनलाइन हाज़िरी लगाने या उन्हें अंतिम समय के दौरान वृद्धाश्रम में रखने की नहीं है। हमारी परंपरा श्रवण कुमार की रही है जो अंतिम समय में वृद्ध माता-पिता का भार अपने कंधों पर उठा ले। हमारी संस्कृति साम्राज्यवादी नहीं है।
हमने कभी किसी राष्ट्र पर शासन नहीं किया। हमारी संस्कृति ‘वशुधैव कुटूम्बकम्’ की रही है। हमारी संस्कृति सम्पूर्ण धरा के लोगों को अपना परिवार मानने की रही है; चाहे वे किसी भी धर्म के हों अथवा किसी भी संप्रदाय के हों, चाहे वे कोई भी भाषा को बोलते हों। हमारे यहां का मानवीय जीवन मूल्य त्याग एवं समर्पण का है जो अपने परिवार, समाज, देश के लिए यदि घास की रोटी भी खानी पड़े तो मालपुआ समझकर सहज ही खा लेते हैं। देश और जनता के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर करने के लिए तत्पर रहते हैं। यदि बात अपने अधिकारों की आयी अथवा अपनी अस्मिता की रक्षा या धर्म- नैतिकता की रक्षा की आयी तो उसके लिए अंतिम सांस तक लड़ने के लिए तत्पर रहते हैं। हम कह सकते हैं कि भारतवर्ष का मानवीय जीवन मूल्य उच्च कोटि का रहा है, जिसका उदाहरण ‘महाभारत’ एवं ‘रामायण’ जैसे ग्रंथ भी हैं।
इन्हीं परंपरा एवं संस्कृति को ध्यान में रखकर महात्मा गांधी ने ‘अहिंसा’ का मार्ग अपनाकर स्वाधीनता के हवनकुंड में अपने आपको ख़पा दिया। इन्हीं जीवन मूल्यों को ध्यान में रखकर शहीद भगतसिंह, चंद्रशेखर आज़ाद एवं लाला लाजपतराय तथा अनन्य स्वतंत्रता सेनानियों ने मां भारती को अपनी आत्मा से सींचकर स्वायत्त पृष्ठभूमि को और अधिक उर्वर बना दिया।
अतः हम कह सकते हैं कि स्वतंत्रता का अर्थ अपनी परंपरा, अपनी संस्कृति एवं भारतीय जीवन मूल्य को सहेजते हुए नवीन सोच के साथ नये भारत का निर्माण करने से है। जिसे प्राप्त करनें के लिए अनवरत, अथके अनेक वीर शहीदों तथा अनेक वीर क्षत्राणियों ने अपनी शहादत दी। आज की हमारी स्वतंत्रता उनकी शहादत का ही प्रतिफल है। हमें स्वतंत्रता के सही मायने समझने होंगे। औपचारिकता करने मात्र से भावी पीढ़ी स्वाधीनता के सूक्ष्म भावों से अवगत होने से वंचित रह जायेगी। अंत में सुमित्रानंदन पंत के शब्दों में बस इतना ही कहना है कि-
मुक्ति नहीं पलती दृग जल से हो अभिसिंचित
संयम तप के रक्त स्वेद से हो पोषित
मुक्ति मांगती कर्म वचन मन प्राण समर्पण
वृद्ध राष्ट्र को वीर युवकगण दो निज यौवन