कठिन परिश्रम का कोई विकल्प नहीं

कठिन परिश्रम का कोई विकल्प नहीं

(हड़पसर एक्सप्रेस प्रयास कर रहा है कि समाज में जिस व्यक्ति ने अपने जीवन में कठिन परिश्रम करके प्रेरणास्पद कार्य किया है या कर रहे हैं, उनके बारे में साक्षात्कार या लेख द्वारा जानकारी दी जाए ताकि युवा पीढी प्रेरणा ग्रहण कर सके। इसी श्रेणी में सेवानिवृत्त पुलिस निरीक्षक और उद्योपति विजय बागल से हमारे वरिष्ठ संवाददाता सत्येंद्र सिंह ने साक्षात्कार किया…)

‘कठिन परिश्रम का कोई विकल्प नहीं है।’ ये उद्गार हैं सेवानिवृत्त पुलिस निरीक्षक और उद्योगपति विजय बागल के, जो वाघजाई नगर आंबेगांव खुर्द, पुणे में रहते हैं और वहीं पर है उनका साबुन का कारखाना है यशशिल्प सोप वर्क्स। उनसे सेवानिवृत्ति के बाद भी नियमित परिश्रम करते रहने और इस मुकाम तक पहुंचने के बारे में पूछा तो स्पष्ट रूप से बोले कि कठिन परिश्रम के अलावा कोई चारा नहीं है। वे अपने जीवन के संघर्ष के बारे में बताते हुए कहते हैं कि उनका जन्म 4 अगस्त 1955 को औंध, जिला सातारा में हुआ। पिता उत्तम गणपति बागल पुलिस में थे, परंतु विजय बागल ने प्रारंभिक शिक्षा 1961 में सातारा में ही ग्रहण करते समय यह प्रण कर लिया था कि वे अपने बलबूते शिक्षा ग्रहण करते रहेंगे और फिर जो भी काम मिला वह किया चाहे वह सुतार के यहां रंदा खींचने का हो, तंबाकू की पुड़ी बनाने व चिपकाने का, घर में कपड़े धोने हों या बर्तन घिसने का हो यानी जो भी काम मिला वह किया। उन्होंने काम करके अपनी फीस जमा की और इस तरह 1972 में मेट्रिक कर लिया। जब कालेज गए तो पियून का काम तीन वर्ष तक किया। क्लर्क के रूप में भी काम किया और इस तरह काम करते हुए बी.ए. कर लिया। 1974 में वे पुलिस विभाग में कांस्टेबल के रूप में भरती हो गए। पर पढ़ने का उनका मन बना रहा तो विभागीय अनुमति लेकर कोल्हापुर यूनीवर्सिटी से 1978 से 81 तक एस.एल.बी. किया और यूनीवर्सिटी में थर्ड पोजीशन प्राप्त की।

उन्होंने 1983 में एम.पी.एस.सी. की परीक्षा दी परंतु अनुत्तीर्ण हो गए। 1984 में पी.एस.आई. के रूप में चुने गए। पहली पोस्टिंग सोलापुर में हुई। सोलापुर से स्थानांतरण हुआ तो तत्कालीन प्रधानमंत्री माननीय पी.वी.नरसिंहराव जी की पुत्री जो नगर में अध्ययनरत थीं के सुरक्षा प्रभारी बना दिए गए। इस रूप में दो वर्ष काम किया। इसके बाद वे सांगली व उसके आसपास पीएसआई के रूप में ही तैनात रहे। 1999 में एंटीकरप्शन विभाग, पुणे में तैनात हुए और वहां दो वर्ष काम किया। सन ्2000 में पुलिस निरीक्षक के पद पर प्रोन्नत हो गए और सातारा में नियुक्त हुए। दो वर्ष काम करने के बाद 2003 में कोल्हापुर में पुलिक निरीक्षक रहे। इसके बाद वे 2006 में मुंबई स्थानांतरित हुए और फिर ठाणे तथा उसके आसपास पुलिस निरीक्षक रहे। वे 2013 में सेवानिवृत्त हो गए।

यह पूछने पर कि इतना लंबी पुलिस सेवा के दौरान उन्हें कोई सम्मान या पुरस्कार मिला क्या तो थोड़े संकोच के साथ बोले कि हां मिले तो थे- करीब 240 पुलिस पुरस्कार और तत्कालीन मुख्यमंत्री माननीय वसंत दादा पाटिल के करकमलों से सत्कार। अब उद्योग के बारे में पूछने का अवसर आ गया था और मैंने पूछा कि पुलिस में काम करते करते साबुन व वाशिंग पाउडर बनाने की कल्पना कैसे हो गई तो थोड़ा संगीन होकर बोले कि मैं बदलापुर में पोस्टेड था, वहां एम.आई.डी.सी. में दंगा हो गया। वहां के कारखानों को बचाने का बंदोबस्त किया। दंगा थमने के बाद कारखाने के मैनेजर ने खुश होकर प्लास्टिक के पैकेट में एक सफेद पाउडर दिया। वह वाशिंग पाउडर था जो वे घर में बनाते थे। उस समय मेरा बेटा नचिकेत मैकेनिकल इंजीनियरिंग कर रहा था। पाउडर देख कर समझ में आया कि झोपड़पट्टी से लेकर बंगले तक कपड़े धोने की जरूरत तो होती ही है। मैंने मैनेजर से पाउडर बनाने की जानकारी मांगी परंतु उसने नहीं दी। एक बिल्डर के यहां चोरी हो गई और चोर फरार हो गया। खबर मिली कि वह गुजरात में है। उस फरार आरोपी को पकड़ने के लिए मुझे गुजरात जाने की परवानगी मिल गई। वह बिल्डर गुजराती था और गुजरात में उसके एक रिस्तेदार से मुलाकात हुई जो साबुन, वाशिंग पाउडर व फर्श साफ करने का लिक्विड बनाता था। उससे जानकारी मांगी तो उसने भी नहीं दी, लेकिन मुझे एक नंबर दिया जहां से कामचलाऊ जानकारी मिल सकी। गूगल सर्च करके भी जानकारी एकत्र करता रहा।

तनख्वाह में काम चलता नहीं था और रिश्वत लेता नहीं था तो कुछ करने की ठान ही ली थी। वाशिंग पाउडर बनाने की कोशिश की तो शुरुआत में लगा कि यह अपनी ताकत से बाहर है, लेकिन अभ्यास करते करते वाशिंग पावडर बन ही गया। जो बन जाता उसे प्लास्टिक की पिशवी में डालकर बाजार भेजा। थोड़ा थोड़ा बिकने लगा। 2007 में यह प्लॉट लिया और पावडर बनाना शुरु किया। पांच टन पावडर बनने लगा। बिजनेस मेगजीन, गुगल से और जानकारी लेते रहे और इस तरह 2013 के शुरू में साबुन बनाना शुरू किया। पहले अपना सामान लेकर दूसरी साबुन की फैक्टरी में बनवाया परंतु उन्होंने धोखा दिया। पानी के भी पैसे लेते थे। वहां से बनवाना बंद किया फिर सोचा अपना काम शुरु करना ही है। अहमदाबाद से साबुन बनाने की पुरानी मशीन लाए। सन् 2015, 16, 17 में साबुन व वाशिंग पावडर बनाने का काम अच्छी तरह चला। 2018 में मशीन बदल दी। शुरू शुरू में बेटा स्कूटर से माल ले जाता और बाजार में पहुंचाता फिर पैगो ले लिया। 5-6 टन माल माहवार बनने लगा था। 2018 के बाद 2021 तक थोड़ी सफलता हाथ आई, क्योंकि कोरोना काल में बड़े बड़े कारखाने बंद हो गए और उनकी छोटी छोटी मांग हमारे पास आने लगी। इस तरह हमारा काम बंद नहीं हुआ अपितु ओर अच्छी तरह चला।

यह पूछने पर कि आप अपने व्यवसाय से कितने संतुष्ट हैं तो उत्साह से बोले कि इस समय 200 टन का उत्पादन है, 14 लोग काम कर रहे हैं। मुझे खुशी इस बात की है कि मेरी मेहनत से 14 लोगों के परिवार का पेट पल रहा है। उन्होंने अपनी मान्यताओं के बारे में बताते हुए कहा कि मैं जन्मदिन नहीं मनाता, कोई आडंबर नहीं करता, फिजूल खर्च नहीं करता, भिखारी को पैसे नहीं देता। हां जरूरतमंदों को दान अवश्य देता हूं। जैसे सप्तगिरी अनाथालय को अपना सामान निशुल्क देता हूँ। कामवाली बाई की लड़की की पढ़ाई का खर्च उठा रहा हूँ। वृद्धाश्रमों को सहायता करता हूँ।

यह पूछने पर कि आप पुलिस निरीक्षक रहे हैं, पूरे प्रदेश में रह कर हर प्रकार का अनुभव प्राप्त किया है और अब अच्छा खासा उद्योग चला रहे हैं तो आज के युवा वर्ग को क्या संदेश देना चाहेंगे तो मुस्कुराते हुए कहते हैं कि जीवन में सफलता पाने के लिए कड़ी मेहनत के अलावा दूसरा कोई विकल्प नहीं और न ही कोई शॉर्टकट है। उल्लेखनीय है कि विजय बागल ज्येष्ठ नागरिक सेवा संघ वाघजाईनगर के संस्थापक सदस्य भी हैं।

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