कफ़न के ताने-बाने (भाग-9)

कफ़न के ताने-बाने (भाग-9)
दोनों खड़े होकर गाने लगे-ठगिनी क्यों नयना झमकावै! ठगिनी! यही निर्वेद नाचने-गाने, उछालने-कूदने, मटकने-अभिनय करने और मदमस्त होकर गिर पड़ने तक ले जाता है।
निष्कर्षत: हम कह सकते हैं कि कथाक्रम के इस तीसरे भाग में जब घीसू-माधव तृप्तिदायक भोजन कर लेते हैं, तब वे ऐसे मनुष्य की तरह आचरण करते हैं, जिनके हृदय में करुणा है, दया है, कृतज्ञता है, सहानुभूति है, अपराधबोध है और जवाबदेही काभाव है। जहाँ शोक है, दुःख है, गौरव है, उल्लास है, आनन्द है, निर्वेद है। वे नाचते हैं, गाते हैं, उछलते हैं, कूदते हैं और नशे में मदमस्त होकर गिर पड़ते हैं।
चरित्र का विभाजक बिंदु-‘पेट की भूख’
घीसू-माधव के चरित्र के उपर्युक्त तीनों पहलू मनुष्य की मानसिकता के दो पक्षों से संबंध रखते हैं। पहला और तीसरा पहलू भावपक्ष से संबंधित है और दूसरा बुद्धिपक्ष से। भावपक्ष से जुड़े हुए दोनों पहलू- पहला, संवेदन शून्य, अमानवीय, अजगरी पहलू है और तीसरा संवेदनशील, स्वस्थ मानवीय भावों से युक्त। इन दोनों के बीच विभाजक बिंदु है, ‘पेट की भूख।’ भूख की तृप्तिदायक निवृत्ति से पूर्व वे मानव के चोले में शैतान दिखाई देते हैं और भर पेट मनमाना भोज मिल जाने बाद, वे हाड-मांस के अच्छे इंसान बन जाते हैं।
यथार्थ (तथ्य) बनाम आदर्श (कल्पना)
घीसू-माधव के चरित्रगत पहलुओं का विश्लेषण करते हुए ऐसा लगता है (है नहीं) कि ‘कफ़न’ एक चरित्र प्रधान और व्यक्तिवादी कहानी है। दोनों बाप-बेटे किसी जाति-वर्ग का प्रतिनिधित्व नहीं करते, बल्कि अपने निजी विशिष्ट व्यक्तित्व (इन्दीविज्युल) का प्रक्षेपण करते हैं। किन्तु प्रश्न यह है कि व्यक्तित्व का यह प्रखर चित्रण समाज के जिस काले केनवास पर अंकित किया गया है, उसका यथार्थ क्या है? इस प्रश्न पर विचार करने के लिए एक बार पुन: घीसू-माधव के चरित्र के पहले और तीसरे पहलू की ओर लौटें-
नशे का यथार्थ
कहीं ऐसा तो नहीं है कि घीसू-माधव के चरित्र का यह तीसरा पहलू ‘शराब का करिश्मा’ हो? ऐसा बहुत से सुधी विद्वानों का मत भी है कि घीसू-माधव के चरित्र में इंसानी बदलाव नशे के कारण दिखाई देता है। शराब पीने से पूर्व वे इंसान के चोले में हैवान थे-पशु थे। नशे के प्रभाव में आकर वे अपनी बची हुई पूड़ियाँ बिना मांगे भिकारी को दे देते हैं। मृतात्मा के प्रति कृतज्ञता, सहानुभूति और अपराधबोध प्रकट करते हैं- उसे स्वर्ग प्राप्त हो, इसकी कामना करते हैं। उसके कष्टों और बुरी तरह की मौत को याद करके रोते हैं। भिकारी को पूड़ी दान करने पर गौरव, आनंद और उल्लास का अनुभव करते हैं। किन्तु प्रश्न यह कि यह सब कुछ, यदि ‘नशे का करिश्मा’ है, तो कौन कहता है कि शराब पीना बुरी बात है! शोध का विषय है कि शायद कविवर बच्चनजी ने ‘कफन’ से प्रेरणा लेकर ही ‘मधुशाला’ की रचना की हो। (वैसे ‘कफन’ ‘मधुशाला’ के बाद में लिखी गई कहानी है।)
देखा तो यह जाता है कि शराब के नशे में लोग गलिच्छ गालियों की गंगा बहाने लगते हैं। ईंट पत्थरों की वर्षा करने लगते हैं। लात-घूँसा, मार-पीट, तोड़-फोड़ तक ही सीमित नहीं रहते, कभी-कभी किसी को स्वर्ग में ही पहुंचा देते हैं और ऐसा आचरण सिर्फ अपराधवृत्ति वाले लोग ही नहीं करते, बल्कि कभी-कभी वे भी करते हुए दिखाई देते हैं, जो नशे से पूर्व बहुत ही सरल, सीधे, भोले-भाले लगते हैं। किन्तु बोतल चढ़ाते ही शैतान बन जाते हैं।