25/06/2025

कफ़न के ताने-बाने (भाग-6)

Keshav Prathamvir

कफ़न के ताने-बाने (भाग-6)

मुझे यह कहने में हिचक नहीं है कि मैं और चीजों की तरह कला को भी उपयोगिता की तुला पर तौलता हूँ। नि:संदेह कला का उद्देश्य सौन्दर्यवृति की पुष्टि करना है और वह हमारे आध्यात्मिक आनंद की कुंजी है, पर ऐसा कोई रुचिगत मानसिक तथा आध्यात्मिक आनन्द नहीं, जो अपनी उपयोगिता का पहलू न रखता हो। आनन्द स्वत: एक उपयोगिकतायुक्त वस्तु है।

बंधुत्व और समता, सभ्यता तथा प्रेम सामाजिक जीवन के आरंभ से ही, आदर्शवादियों का सुनहरा स्वप्न रहे हैं।
हमारी कसौटी पर वही साहित्य खरा उतरेगा, जिसमें उच्च चिंतन हो, स्वाधीनता का भाव हो, सौन्दर्य का सार हो, सृजन की आत्मा हो, जीवन की सच्चाइयों का प्रकाश हो- जो हममें गति, संघर्ष और बेचैनी पैदा करे, सुलाए नहीं, क्योंकि अब और ज्यादा सोना मृत्यु का लक्षण है।

प्रेमचंद ने दिल्ली-प्रवास में ( 1932) जैनेन्द्र जी ने उनसे पूछा, आपने इतना कुछ लिखा है, एक वाक्य में बताइए कि आपने आखिर जतलाना क्या चाहा है? क्षण भर की देर नहीं लगी, प्रेमचंद तपाक से बोले, धन की दुश्मनी।
उपर्युक्त लंबी-चौड़ी पृष्ठभूमि पर ‘कफन’ के चारों कोने बिछाकर उसके ताने-बानों को देखा जाए तो अनेक प्रश्न उठते दिखाई देते हैं। इन्हीं प्रश्नों और उनके पीछे से झांकते उत्तरों को मूल पाठ के साक्ष्य पर प्रस्तुत करना इस आलेख का उद्देश्य है।

इस कहानी के कथा-ढाँचे पर एक दृष्टिपात करने पर सबसे मोटी बात यह दिखाई देती है कि लेखक ने इसे स्पष्टत: अंक डालते हुए तीन भागों में विभाजित किया है। पहले भाग में घीसू और माधव (बाप-बेटे) अलाव में आलू भूनकर खा जाते हैं और वहीं अजगर की तरह गेंडुलियाँ मारकर सो जाते हैं। उधर बुधिया प्रसव-पीड़ा से तड़प-तड़पकर अपने बच्चे सहित मर जाती है। भाग ‘2’ के अंतर्गत घीसू और माधव रोने-धोने का नाटक करते हुए कफन के लिए भीक मांगते हैं और पाँच रुपए की ‘अच्छी रकम’ लेकर बाजार चले जाते हैं। भाग ‘3’ में वे दोनों बाजार की अनेक दुकानों पर कफ़न देखते हैं, किन्तु पसंद नहीं कर पाते और अंतत: किसी अव्यक्त प्रेरणा से मधुशाला पहुँच कर शराब पीते हैं, पूडियां खाते हैं तथा तृप्त होकर उछलते-कूदते-गाते हुए गिर पड़ते हैं।

प्रश्न है लेखक ने उक्त तीन भाग, स्पष्टत: अंक डालकर क्यों किए? क्या लेखक की सभी कहानियाँ या अधिकाँश कहानियाँ इसी प्रकार अंक डालकर विभाजित की गई हैं? इस प्रकार अंक डालकर विभाजन के पीछे कोई लेखकीय उद्देश्य है या नहीं? यदि कोई उद्देश्य नहीं है, तो क्या यह अपनी कथा-योजना के प्रति लेखकीय लापरवाही को सूचित नहीं करता? यदि यह सोद्देश्य है तो वह क्या है? इस क्षण यह उद्देश्य स्पष्ट नहीं हो रहा है, आप सोचिए!

डॉ. केशव प्रथमवीर
पूर्व हिंदी विभागाध्यक्ष
सावित्रीबाई फुले पुणे विद्यापीठ

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