उदात्त जीवन की ओर भाग-9

कौन कहता है, कि आसमां में सूराख नहीं होता! एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो। संकल्प में बड़ी शक्ति होती है। संकल्प की दृष्टि से मनुष्यों के तीन वर्ग किए जा सकते हैं-एक वे जो सोच समझ कर एक बार संकल्प करते हैं, फिर चाहे मौत ही क्यों न आ जाए, वे अपने सकल्प पर अंगद के पैर की तरह अडिग रहते हैं। ये उत्तम श्रेणी के व्यक्ति कहलाते हैं। ऐसे व्यक्तियों के संबंध ही ‘राजर्षि भर्तृहरि’ की टिप्पणी है-
निन्दन्तु नीतिनिपुण: यदि वा स्तुवन्तु। लक्ष्मी: समाविशतु, गच्छतु वा यथेष्टम्।
अद्यैव वा मरणमस्तु युगान्तरे वा। न्यैयात्पथ: प्रवचलन्ति पदं न धीर:॥
भाव यह है कि ‘नीति शास्त्री निंदा करें या स्तुति, लक्ष्मी आए, चली जाए अथवा बनी रहे। मौत आज ही आ जाए या युगों बाद आए। अपने संकल्पित न्याययुक्त पथ पर चलने वाले धीर पुरुष एक कदम भी विचलित नहीं होते।’ दृढ़ संकल्प वाले व्यक्ति इस तथ्य को हर समय याद रखते हैं कि मौत एक दिन ही आ सकती है, बार-बार नहीं। उससे क्या डरना है!
दूसरी श्रेणी के व्यक्ति वे होते हैं जिनका संकल्प बार-बार टूटता है, किन्तु वे हार नहीं मानते। वे गिरते-फिसलते अपनी मंजिल पर पहुँच ही जाते हैं। ऐसे ही किसी व्यक्ति ने कहा है कि, मैं चढ़ गया हिमालय, गिर-गिर फिसल कर। और तीसरी श्रेणी के लोग वे होते हैं जो संकल्प तो करते हैं बड़े जोर-शोर के साथ, किन्तु एकाध कदम चलने में उनकी दम फूल जाती है और हार मान कर बैठ जाते हैं। इसी तरह के हारे हुए लोगों के बारे में किसी शायर ने ठीक ही लिखा है-
न पूछो कौन हैं, क्यों राह में लाचार बैठे हैं। मुसाफिर हैं, सफर करने की हिम्मत हार बैठे हैं।
संकल्प मन की दृढ़ता का ही रूप है। मनुष्य के उत्थान और पतन का कारण उसके मन को ही माना जाता है। हमारे देश के हर युग के मनीषियों ने मन की क्षमता के संबंध में अपने-अपने तरीके से हर समय लोगों को चेताया है- मनु स्मृति का वचन है- मन एवं मनुष्याणां कारण बन्ध मोक्षयो: अर्थात मनुष्य का मन ही उसके बंधन और मोक्ष का कारण है। आदि शंकराचार्य इसी बात को प्रश्नोत्तर रूप में यों लिखते हैं- विश्व जितेन केन:? मनहि एन:। संसार किसने जीता? जिसने मन जीता। छत्रपति शिवाजी महाराज के सद्गुरु समर्थ स्वामी रामदास ने मन को ‘सज्जन’ कह कर, 205 मराठी छंदों में उसका प्रबोधन किया है। लोक मानस में बहु प्रचलित पंक्तियाँ हैं –
मन के हारे हार है, मन के जीते जीत। मन ही बैरी आपनो, मन ही अपनो मीत॥
इसलिए मन की साधना के संकरे, कंकरीले, कँटीले, और रपटीले पथ को पार करते हुए जो कोई भी व्यक्ति मानव कल्याण की उदात्त भावना से कार्य संपन्न करता है, वही महापुरुषत्व की अर्थवत्ता धारण करता है। समर्थ स्वामी रामदास का वचन है-
केल्याने होत आहे रे। आधी केले चि पाहिजे॥
अर्थात करने से ही सब कुछ होता है, पहले करके तो देखो।
(समाप्त)
डॉ. केशव प्रथमवीर
पूर्व हिंदी विभागाध्यक्ष
सावित्रीबाई फुले पुणे विद्यापीठ