हिंदी : राष्ट्रीय एकता की जीवनरेखा और राजनीति का आईना
14 सितंबर, हिंदी दिवस पर विशेष
14 सितम्बर 1949 को संविधान सभा ने हिंदी को भारत की राजभाषा का दर्जा प्रदान किया। तभी से यह दिन ‘हिंदी दिवस’ के रूप में मनाया जाता है। स्वतंत्रता के बाद राष्ट्रीय एकता और सांस्कृतिक पहचान को मजबूत करने में हिंदी ने बड़ी भूमिका निभाई है। हिंदी केवल भाषा नहीं, बल्कि करोड़ों भारतीयों की भावनाओं की अभिव्यक्ति है। यह विविधता में एकता का सेतु है, परंतु आज़ादी के 78 वर्षों के बाद भी हिंदी को लेकर बहस, विवाद और राजनीति थमी नहीं है।
हिंदी का ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्व
हिंदी भारत की सबसे अधिक बोली और समझी जाने वाली भाषा है। 2011 की जनगणना के अनुसार लगभग 44% भारतीयों की मातृभाषा हिंदी है और यदि हिंदी की उपभाषाओं को जोड़ा जाए तो यह आंकड़ा 57% से अधिक हो जाता है। हिंदी फ़िल्म, साहित्य, पत्रकारिता और सोशल मीडिया के माध्यम से देशभर में सहजता से बोली-समझी जाती है।
महात्मा गांधी ने कहा था कि हिंदी ही वह भाषा है जो भारत को जोड़ सकती है। पं. नेहरू ने इसे जन भाषा कहा था। यही कारण है कि हिंदी को संविधान में राजभाषा का स्थान दिया गया।
हिंदी दिवस केवल एक औपचारिक आयोजन नहीं, बल्कि आत्मचिंतन का अवसर है। यह हमें याद दिलाता है कि हिंदी हमारी पहचान और सांस्कृतिक विरासत का अभिन्न हिस्सा है। हिंदी को तकनीक, प्रशासन और शिक्षा की भाषा बनाने की आवश्यकता है।
हिंदी का प्रचार केवल उत्तर भारत में नहीं, बल्कि पूरे देश में संतुलित रूप से होना चाहिए।
महाराष्ट्र और हिंदी : एक संवेदनशील पहलू
महाराष्ट्र हिंदी के प्रसार का एक प्रमुख केंद्र रहा है। मुंबई को ‘मायानगरी’ कहा जाता है, जहां हिंदी फ़िल्म उद्योग ने हिंदी को वैश्विक पहचान दिलाई। पुणे, नागपुर, नासिक जैसे शहरों में हिंदी साहित्य, पत्रकारिता और रंगमंच की गहरी परंपरा है, लेकिन हाल के दिनों में महाराष्ट्र की राजनीति में हिंदी भाषा विवाद का मुद्दा बनी। मराठी अस्मिता की राजनीति के बीच हिंदी भाषी समाज को अक्सर निशाने पर लिया गया। हाल ही में विधानसभा और सार्वजनिक मंचों पर यह सवाल उठा कि महाराष्ट्र में हिंदी को कितना महत्व दिया जाए। मराठी को प्रमुख स्थान दिलाने के नाम पर हिंदी के उपयोग को सीमित करने के स्वर सुनाई दिए।
पुणे और मुंबई में नगर प्रशासन से लेकर परिवहन तक में स्थानीय भाषा को प्राथमिकता देने की मांग की गई। विपक्ष और सत्ता पक्ष दोनों ने समय-समय पर हिंदी को लेकर बयानबाज़ी की। इसका असर यह हुआ कि हिंदी भाषी समुदाय में असुरक्षा की भावना पनपी।
राजनीति बनाम भाषा का वास्तविक प्रश्न :
भाषा को लेकर राजनीति करना नया नहीं है। हिंदी विरोध का इतिहास दक्षिण भारत से लेकर महाराष्ट्र तक फैला हुआ है। तमिलनाडु में हिंदी के खिलाफ आंदोलनों ने राजनीति की दिशा ही बदल दी थी। महाराष्ट्र में मराठी बनाम हिंदी का मुद्दा चुनावी लाभ और अस्मिता की राजनीति से जुड़ गया है।
लेकिन सवाल यह है कि
-क्या किसी भाषा को महत्व देने का अर्थ दूसरी भाषा को दबाना होना चाहिए? क्या हिंदी और मराठी विरोधी भाषाएँ हैं या एक-दूसरे की पूरक?
वास्तविकता यह है कि हिंदी और मराठी दोनों भारतीय संस्कृति की बहन भाषाएँ हैं। दोनों की जड़ें संस्कृत में हैं। एक भाषा को कमजोर करके दूसरी को मजबूत करने की सोच न केवल गलत है, बल्कि समाज में विभाजन पैदा करती है।
हिंदी और तकनीकी युग
-आज के डिजिटल दौर में हिंदी की पहुँच अभूतपूर्व रूप से बढ़ी है।
-इंटरनेट पर हिंदी उपयोगकर्ताओं की संख्या अंग्रेज़ी से तेज़ी से बढ़ रही है।
-गूगल, फेसबुक, यूट्यूब और तमाम ऐप्स पर हिंदी प्रमुख भाषा बन चुकी है।
-आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और मशीन ट्रांसलेशन ने हिंदी की बाधाओं को तोड़ा है।
इस बदलते परिदृश्य में हिंदी न केवल भारत में बल्कि वैश्विक स्तर पर अपनी पहचान बना रही है। अमेरिका, यूरोप और खाड़ी देशों में बसे प्रवासी भारतीयों ने हिंदी को और समृद्ध किया है।
समस्या और चुनौतियाँ
-हिंदी दिवस के अवसर पर हमें यह भी स्वीकार करना चाहिए कि हिंदी के सामने चुनौतियाँ कम नहीं हैं-
-प्रशासन और न्यायपालिका में हिंदी का सीमित उपयोग।
-विज्ञान और उच्च शिक्षा में अंग्रेज़ी का वर्चस्व।
-भाषा आधारित राजनीति और क्षेत्रीय अस्मिताओं का टकराव।
-युवाओं में अंग्रेज़ी की ओर आकर्षण और हिंदी लेखन-पठन में गिरावट।
समाधान और आगे की राह
-हिंदी और क्षेत्रीय भाषाओं को पूरक रूप में बढ़ावा देना चाहिए।
-शिक्षा नीति में मातृभाषा और हिंदी दोनों पर बराबर ध्यान देना चाहिए।
-प्रशासनिक कार्यों में हिंदी को सरल और व्यवहारिक बनाया जाए।
-डिजिटल प्लेटफॉर्म पर हिंदी सामग्री की गुणवत्ता बढ़ाने की आवश्यकता है।
-भाषायी विविधता को सम्मान देते हुए हिंदी को एक साझा सेतु के रूप में प्रस्तुत किया जाए।
हिंदी दिवस हमें याद दिलाता है कि हिंदी केवल एक भाषा नहीं, बल्कि भारत की आत्मा की आवाज़ है। महाराष्ट्र ही नहीं, पूरे देश में हिंदी और क्षेत्रीय भाषाओं के बीच संतुलन बनाना समय की मांग है। राजनीति से ऊपर उठकर यदि हम भाषा को संस्कृति और संवाद का माध्यम मानें, तो हिंदी सशक्त होगी और भारत की एकता और भी मजबूत होगी।
भाषा को लेकर संघर्ष नहीं, बल्कि संवाद और सहअस्तित्व की ज़रूरत है। आखिरकार, हिंदी और मराठी सहित सभी भारतीय भाषाएँ मिलकर ही भारत की बहुरंगी पहचान बनाती हैं। हिंदी दिवस का वास्तविक संदेश यही है -भाषा जोड़ती है, तोड़ती नहीं।

आरिफ आसिफ शेख
लेखक, अनुवादक तथा हिंदी भाषा साहित्यिक, पुणे, मोबा. 9881057868