दीपोत्सव : राम के लौटने से अधिक, रामत्व के लौटने की जरूरत
जब जब भी हमारे सामने प्रकृति की परिकल्पना सदृश्य होती है तो हम इसे विराट और अनंत रूपों के साथ अनेकताओं में देखते हैं। जब हम दीप ः ज्योति परम ज्योति कहते हैं तो प्रकृति में समस्त शक्ति को हम स्मरण करते, उसके साथ ही जब हम दीपः ज्योति जनार्दना अर्थात जो दीप जल रही वही जनार्दन है अर्थात परमब्रम्ह है। वह जनार्दन ही तो परम पिता परमेश्वर अखिल ब्रम्हांड नायक मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम हैं, जिनके मर्यादा व आदर्श के सम्मान में दीपोत्सव त्रेतायुग से आज तक होते हुए आ रहा है, एक मानवरूपी राम से ज्यादा उस रामत्व को आलोकित करने के लिए है। हमारे शास्त्रों में दीप केवल लौ की प्रतीक थोड़े न है अपितु यह ज्ञान, सत्य और आत्मबोध का प्रतीक है। ऋग्वेद (9.73 .9) में कहा गया है- तमसो मा ज्योतिर्गमय अर्थात हमें अंधकार से प्रकश की तरफ अग्रसर करो जो कि दीवाली के मूल दर्शन को प्रतिपादित करता है, दीपक जलाना तो हमरा एक बाह्य कर्म हो सकता है किन्तु उसका भाव एकदम स्पष्ट है वह है भीतर के दीप को प्रज्ज्वलित करना। वेदों में दीपों का यह पर्व जब अयोध्या की नगरी दीप शिखाओं से आलोकित होती है, तब प्रतीत होता है कि जैसे हर युग में सत्य और धर्म का उजास अंधकार पर विजय प्राप्त करता है।
दिवाली केवल भगवान श्रीराम की अयोध्या वापसी का ही उत्सव नहीं, बल्कि धर्म, मर्यादा और सत्य की पुनर्स्थापना का प्रतीक भी है। किन्तु वर्तमान समय में प्रश्न यह नहीं कि राम लौटे या नहीं, बल्कि यह है कि क्या हमारे भीतर ‘रामत्व’ अर्थात् सत्य, करुणा, दया, मर्यादा और निष्ठा क्या अब भी जीवित है? रामत्व का अर्थ केवल व्यक्ति नहीं, एक मूल्य है। जो राम, वेदों में वर्णित ऋतम् (सत्य का नियम) और धर्म के शाश्वत स्वरूप के प्रतीक हैं। ऋग्वेद में कहा गया है कि ऋतं च सत्यं चाभीद्धात तपसोऽध्यजायत। (ऋग्वेद 10.190.1) अर्थात् सत्य और ऋत (धर्म) तप से उत्पन्न या सृजित हुए हैं।
राम का जीवन इसी ऋत के पालन का अद्वितीय उदाहरण है। उन्होंने सत्य के लिए त्याग किया, न्याय के लिए संघर्ष किया, और लोककल्याण को अपना धर्म माना। यही रामत्व है – व्यक्ति के भीतर धर्म का प्राण। दीवाली पर हम अपने घरों में असंख्य दीप जलाते हैं, परंतु भीतर का दीप प्रायः प्रदीप्त नहीं रहता है। हमारे मानस के उस दीप को प्रदीप्त करना ही वास्तविक दीवाली है वर्तमान समय में समीचीन भी है। पद्मपुराण में कहा गया है दीपज्योतिर्नमोऽस्तु ते दीपो हरतु मे पापं। अर्थात् हे दीपज्योति, तुम्हें नमस्कार है, तुम मेरे भीतर के अंधकार को हर लो। अर्थात केवल रात्रि का अंधकार नहीं, बल्कि काम, क्रोध, लोभ, मद इर्ष्या, अज्ञान, अहंकार और हिंसा रूपी जो अंधकार समस्त मानव में प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रूप से व्याप्त हैं। यदि हमअपने भीतर के इस तम को न मिटाएँ, तो असंख्य दीप जलाकर भी हम प्रकाशमान नही हो सकते अपितु हमारे अंदर या हमारे पास अंधकारमय ही रहेगा।
त्रेतायुग में जब श्रीराम चौदह वर्षों के वनवास के पश्चात लौटे, तो सम्पूर्ण अयोध्या ने दीप प्रज्वलित क्र उनका स्वागत किया। वह केवल एक राजा का अपने सम्राज्य में स्वागत नहीं था वह धर्म के पुनरागमन का उत्सव था। किन्तु आज हमारे समाज में झूठ, भ्रष्टाचार, हिंसा और स्वार्थ का तिमिर गहराता जा रहा है। ऐसे में एक प्रश्न पूछना प्रासंगिक है क्या राम लौटने चाहिए, या हमें रामत्व को लौटाना चाहिए? क्योंकि राम यदि येन केन प्रकारेण लौट भी आएँ, पर समाज में सत्य, न्याय और संवेदना न हो, तो उनके आदर्श कहाँ स्थापित हो पाएँगे तो दूर की बात खान टिक पाएंगे? इसलिए आवश्यक है कि हर व्यक्ति अपने भीतर के राम को एक जागृत अवस्था में करे, तभी अयोध्या पुनः प्रकाशित होगी।
वेद-पुराणों में धर्म को धारण कहा गया है जो समस्त जगत को स्थिर रखे। मनुस्मृति में कहा गया धारयति इति धर्मः जो सबका पालन करता है वही धर्म है। रामत्व का अर्थ इसी धर्म का पालन है चाहे विपत्ति हो या वैभव, व्यक्ति अपने सत्य और कर्तव्य से न हटे। रामायण में तुलसीदास ने लिखा सत्यं प्रियं हितं चार्थं वचनं चापि चतुर्विधम्। अर्थात् वाणी में सत्य, प्रियता, हित और धर्म हो यही मर्यादा है। आज जब समाज में असत्य को चतुरता, अन्याय को अवसर और स्वार्थ को बुद्धिमत्ता समझा जा रहा है, तब रामत्व का आचरण ही सबसे बड़ा प्रतिकार है। पद्मपुराण के ‘उत्तरखण्ड’ में वर्णन आता है कि दीपावली केवल लक्ष्मी-पूजन का पर्व नहीं, बल्कि आत्मशुद्धि और सत्कर्म का सतसंकल्प है। श्लोक है दीपदानं परं पुण्यं सर्वपापप्रणाशनम्। दीपदान सबसे बड़ा पुण्य है, यह सभी पापों का क्षय करता है। परंतु यहाँ दीपदान का तात्पर्य केवल तेल का दीप जलाना नहीं, बल्कि ज्ञान, करुणा और सहयोग का दीप जलाना है। जो अपने ज्ञान से अंधकार मिटाता है, वही वास्तव में दीपदान हैं। आज का युग भौतिक उपलब्धियों में आगे अग्रसर जरुर हुआ है, परंतु नैतिकता में पिछड़ता जा रहा है।
परिवारों में संवाद घट रहा है, समाज में सहिष्णुता कम हो रही है, और सार्वजनिक जीवन में नीति का स्थान स्वार्थ घेरता जा रहा है। ऐसे में रामत्व का लौटना केवल धार्मिक आग्रह नहीं, बल्कि सामाजिक अनिवार्यता है। रामत्व का अर्थ है न्याय की भावना, स्त्री के प्रति मर्यादा, जनकल्याण का संकल्प, वचन की निष्ठा, और अहंकार से मुक्त सेवा-भाव। यही वे गुण हैं जो किसी राष्ट्र को रामराज्य बनाते हैं। आज दीपावली का रूप कहीं-कहीं प्रदूषण, उपभोग और दिखावे का उत्सव बन रह गया है। परंतु धर्मशास्त्रों में त्यौहार का मूल भाव सात्त्विक आनंद बताया गया है। अथर्ववेद में कहा गया माताभूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः। पृथ्वी मेरी माता है, मैं उसका पुत्र हूँ। इस भाव से यदि हम पर्यावरण का संरक्षण करें, तो यही सच्चा धर्म है।
मिट्टी के दीपक, स्वच्छता, और संयम यही दिवाली का मूल स्वरूप या प्रकृति है। रामत्व कोई बाहरी आदर्श नहीं जिसे अपनाना कठिन हो; यह तो भीतर के मनुष्यत्व का शुद्ध रूप है। यह तभी जागृत होता है जब व्यक्ति अपने भीतर झाँकता है तो जब वह दूसरों में ईश्वर देखता है, जब वह क्षमा करना सीखता है, और जब वह दूसरों के दुःख को अपना मानता है। उपनिषद् कहता है कि- आत्मवत् सर्वभूतेषु यः पश्यति स पश्यति। जो सभी प्राणियों में अपने समान आत्मा देखता है, वही यथार्थ देखता है। रामत्व का अर्थ है इस दृष्टि का उत्तरोतर विकास।
घर में जब माता-पिता अपने बच्चों के प्रति सत्यनिष्ठ और करुणामय हों, शिक्षक अपने शिष्यों में चरित्र निर्माण का दीप जलाएँ, राजनेता समाजहित को सर्वोपरि मानें, और नागरिक अपने कर्तव्यों के प्रति सजग हों तभी राष्ट्र में रामत्व का पुनर्जागरण होता है। तभी दिवाली केवल त्यौहार नहीं, बल्कि नैतिक क्रांति का प्रतीक बनती है। राम के लौटने से अयोध्या में दीप जले थे, पर रामत्व के लौटने से सम्पूर्ण भारत आलोकित हो सकता है। दीवाली का अर्थ यही है कि हम अपने भीतर के अंधकार अहंकार, द्वेष, अन्याय और असत्य को मिटाएँ।
श्रीमद्भागवत में कहा गया धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः। धर्महीन मनुष्य पशु के समान है। अतः धर्म का अर्थ केवल पूजा नहीं, बल्कि सत्आचरण है। सत्य बोलना, अन्याय का विरोध करना, करुणा रखना, यही दीपावली का सार है। आज आवश्यकता है कि हम केवल राम के लौटने की प्रतीक्षा न करें, बल्कि अपने आचरण, विचार और कर्म में रामत्व को पुनः प्रतिष्ठित करें। तभी हमारा समाज, हमारा राष्ट्र और हमारा जीवन वास्तव में प्रकाश पर्व का अर्थ जान पाएगा। दीपं प्रज्वालयेत् ज्ञानं तमो नाशाय चेतसः। ज्ञान का दीप जलाइए, ताकि हृदय का दोष रूपी तिमिर मिट सके। सत्आचरण, सत्य और सेवा यही रामत्व है, यही सच्ची दीपावली भारतवर्ष अनेक संस्कृति को आत्मसात करते हुए राम व्यक्ति नही रामत्व को धारण करने में विश्वास रखता है और अपनी इसी रामत्व के मूल्यबोध से विश्व को आलोकित करता है और आगे भी एक सकरात्मक दिशा की उम्मीद की जा सकती हैं।
अंत में उस राम में ही अनुपम आस्था की झलक श्री राम रामेति रामेति रमे रामे मनोरमे।

पवन कुमार उपाध्याय
शोध छात्र
राजस्थान केन्द्रीय विश्वविद्यालय, अजमेर राजस्थान
