कब्जा (लघुकथा)

राम बिहारी त्रिपाठी जब से अधिकारी वर्ग में प्रमोट हुए तभी से वे और अधिक विनम्र हो गए। उनमें लेशमात्र भी परिवर्तन नहीं आया। साथ के लोग कहते कि त्रिपाठी जी अब अधिकारी बन गए हो तो उसी हिसाब से रहा कीजिए। वे कहते, रहने का कौन सा हिसाब-किताब होता है। ईश्वर ने काम करने का अवसर प्रदान किया है तो पूरे मन से काम करना चाहिए, यही मेरा हिसाब-किताब है और कुछ नहीं। वैसे सभी उनकी ईमानदारी, मेहनत और व्यवहार को पसंद करते थे। हर जगह और हर वर्ग में कुछ न कुछ संगठन के नाम पर भी कुछ होता रहता है। वहां भी एक अधिकारी एसोसिएशन था। एसोसिएशन के अध्यक्ष, उपाध्यक्ष, सचिव और सहायक सचिव जैसे पदों पर अधिकारी लोग आसीन थे पर कोई काम नहीं करता था। एक दिन लंच के समय कुछ अधिकारी बैठे हुए थे, जिनमें त्रिपाठी जी भी थे। एसोसिएशन के अध्यक्ष चौधरी साहब ने कहा, त्रिपाठी जी अब आप अधिकारी बन गए हैं तो एसोसिएशन में भी थोड़ी रुचि रखा कीजिए। उन्होंने कहा कि जी कहिए क्या करना है। चौधरी साहब ने कहा कि आप एसोसिएशन के सचिव का काम संभाल लीजिए। बस हर महीने की आखिरी तारीख को सभी अधिकारियों को फोन करके मीटिंग करना है।

त्रिपाठी जी एसोसिएशन के सचिव के रूप में काम देखने लगे। उच्च अधिकारियों के साथ बैठक में उपस्थित रहते और हैडक्वार्टर स्तर पर भी बैठकों में रहते। समयानुसार अपनी राय देते। वे सभी अधिकारियों के संपर्क में रहते और बैठकों के निर्णय सभी से साझा करते। सब ठीक चल रहा था। अध्यक्ष चौधरी साहब रिटायर होने वाले थे। कई अधिकारी अध्यक्ष बनना चाहते थे पर उनके पास एसोसिएशन के लिए समय नहीं था। एक अधिकारी त्रिपाठी जी के प्रति कुछ अधिक ही अच्छा व्यवहार करने लगे और उनके हर काम में सहयोग का वादा करने लगे। दोनों साथ-साथ चाय पीते। त्रिपाठी जी उनसे बहुत प्रभावित हो गए और सोचने लगे कि अध्यक्ष के चुनाव में उनके नाम का प्रस्ताव रखेंगे तो ठीक रहेगा।

महीने के आखिरी दिन बैठक के साथ साथ एसोसिएशन का वार्षिक अधिवेशन भी हुआ, जिसमें त्रिपाठी जी ने चौधरी साहब की जगह अध्यक्ष पद के लिए उक्त अधिकारी के नाम का प्रस्ताव रखा और सभी ने उनके प्रस्ताव का समर्थन किया और अध्यक्ष का मनोनयन हो गया। महीने की आखिरी तारीख को त्रिपाठी जी महाप्रबंधक के चैंबर के आगे से निकल रहे थे तो उन्होंने चैंबर से निकलते हुए नवनिर्वाचित अध्यक्ष को देखा तो वे बोले कि आज आखिरी तारीख है शाम को एसोसिएशन की बैठक के लिए सभी को फोन कर दिया है। नवनिर्वाचित अध्यक्ष थोड़े मुस्कुराए और बोले, काहे की बैठक। मैं महाप्रबंधक के साथ बैठक करके ही आ रहा हूँ। सबको क्यों परेशान करते हैं। यह सुनकर त्रिपाठी जी स्तब्ध रह गए और एक संस्था पर एक व्यक्ति का कब्जा होते हुए देखते रहे।

Satyendra-Singh-300x273 कब्जा (लघुकथा)डॉ. सत्येंद्र सिंह
पुणे, महाराष्ट्र

 

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