कफ़न के ताने-बाने (भाग-1)

कफ़न के ताने-बाने (भाग-1)

कफ़न के ताने-बाने (भाग-1)

कफ़न के ताने-बाने (भाग-1)

आधुनिक हिंदी कहानी के विकास का इतिहास लगभग सवा सौ वर्ष पुराना है। इन विगत वर्षों में कई हजार कहानियाँ प्रकाशित हुईं और काल के गर्त में विलुप्त हो गईं। कुछ कहानियाँ ऐतिहासिक विकास को दर्शाने हेतु उल्लिखित होती रहीं और पाठ्यक्रमों में स्थान पाती रहीं, लेकिन कुछ कहानियाँ उँगलियों पर गिनने लायक ही हैं, जिन पर उनके प्रकाशन के बाद से आज तक निरंतर चर्चा हुई हो। इन अल्प-सी कहानियों में से यदि किसी एक कहानी को चुना जाए, तो हमारे मत से कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद की अंतिम कहानी ‘कफन’ को ही सर्वाधिक मत प्राप्त होंगे।

यह कहानी ‘चाद’ नामक हिन्दी मासिक पत्रिका के अंतर्गत अप्रैल 1936 में छपी और इससे पूर्व यही कहानी दिसंबर 1935 में उर्दू की मासिक पत्रिका, ‘जामिया’ में प्रकाशित हो चुकी थी। कुछ समय पूर्व यह विवाद भी हुआ था कि ‘कफन’ हिन्दी की मौलिक कहानी नहीं है, बल्कि अनुवाद है, जो प्रेमचंद ने किसी अन्य से करवाया था। चर्चा और छानबीन करने पर यह तथ्य सामने आया कि ‘कफ़न’ को प्रेमचंदजी ने स्वयं ही लिखा लिखा था। (देखें ‘पहल’ का 68 वाँ अंक, अप्रैल 2001) स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी कहानी की यात्रा में अनेक मोड़ आए और चले गए, किन्तु ‘नई कहानी’ से समकालीन कहानी तक के सभी खेमों में ‘कफन’ के साथ नाता अवश्य जोड़ा गया। ‘प्रेमचंद जन्म शताब्दी वर्ष’ (1980-81) के अंतर्गत देश-विदेशों में चर्चाएँ हुईं और पत्र-पत्रिकाओं ने जो विशेषांक प्रकाशित किए, उन सभी में कफ़न कहानी ने विशेष तौर पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराई ।

हिन्दी की यह एक मात्र सी कहानी है जिसके प्रकाशन वर्ष की स्वर्ण जयंती (1986-87) वर्ष में अनेक चर्चाएँ हुईं तथा पत्र-पत्रिकाओं ने विशेष आलेख प्रकाशित किए। ‘सारिक’ के 15 अक्टूबर 1986 के अंक में, प्रेमचंद साहित्य के विशेष शोध कर्ता- संपादक डा. कमल किशोर गोयनका ने ‘कफ़न’: आत्मा की तलाश’ पर एक परिचर्चा का आयोजन किया, जिसमें डा. प्रभाकर माचवे, डा. विवेकी राय, डा.कल्याणमल लोढा, डा. राममूर्ति त्रिपाठी, श्री शैलेश मटियानी, श्री हंसराज रहबर, डा. प्रेम शंकर जैसे अनेक मान्यवरों ने भाग लिया। अगले वर्ष फरवरी 1987 की ‘सारिका’ में कथाकार-आलोचक श्री रमेश उपाध्याय का एक लंबा लेख-‘क्या प्रेमचंद की परंपरा केवल ‘कफन’ से बनती है?’ प्रकाशित हुआ,जो इस कहानी पर व्यक्त किए गए महत्वपूर्ण विचारों का समीक्षात्मक विमर्श प्रस्तुत करता है। मराठी साहित्य से प्रेरणा लेकर हिन्दी में जो ‘दलित साहित्य’ का आन्दोलन चला है, उसके अंतर्गत भी ‘कफन’ को लेकर गर्मागर्म चर्चा हुई हैं। (21-22 अक्टूबर 1993 नागपुर में आयोजित ‘हिन्दी दलित लेखक साहित्य सम्मलेन’, रिपोर्ट 16-31 अगस्त, 1994 ‘समकालीन जनमत’) ये मात्र नमूने हैं। अगर ‘कफन’ पर हुई चर्चाओं-लेखों को खोजा जाए और उनमें व्यक्त विचारों का अध्ययन किया जाए तो एक अच्छा-ख़ासा ‘शोध प्रबंध’ तैयार हो सकता है।

यहाँ इतना ही कहना अपेक्षित है कि ‘कफन’ को लेकर प्रेमचंदजी को जितने परस्पर विरोधी अभिधानों से विभूषित किया गया है, उतने किसी अन्य रचना से उन्हें प्राप्त नहीं हुए। किसी ने कहा कि, इस कथा तक आते-आते गांधीवाद और आदर्शवाद से प्रेमचंद का मोह भंग हो गया। तो किसी ने ठीक इसके विपरीत फतवा दिया कि, अंतिम दौर की कहानी ‘कफन’ तक आते-आते वे गांधीवादी आदर्शों, सामंती मूल्यों और वर्ण व्यवस्था के पक्षधर दिखाई देते हैं। (ओमप्रकाश वाल्मीकि – नागपुर सम्मलेन), किसी ने इस कहानी को यथार्थवादी, अतियथार्थवादी, नग्न यथार्थवादी कहा, तो किसी को इसमें ‘मार्क्सवाद’ के दर्शन हुए। किसी ने कहा कि ‘प्रेमचंद अपने अंतिम समय में ‘सठिया’ गए थे जो उन्होंने सी गलिच्छ कहानी लिखी, यह उनकी ‘अत्यंत निकृष्ट कहानी है और मैं इस निष्कर्ष पर बहुत बाद में अपने मार्क्सवादी अध्ययन द्वारा पहुँचा हूँ।’

(हंसराज रहबर-‘सारिका’ अक्टूबर, 1986) इसी अंक में रामेश्वर शर्मा ने लिखा, घीसू-माधव प्रेमचंदीय ब्राह्मण हैं, महाब्राह्मण का मृतक से रागात्मक संबंध तो नहीं होता, यहाँ तो मानवीय राग-चेतना के संपूर्ण मूल्य को ध्वस्त कर प्रेमचंद घीसू-माधव का समर्थन करते नजर आते हैं और उस पर भी तुर्रा प्रगतिशीलता का? (इस) कहानी में प्रेमचंद का पतन ‘मरणोंन्मुख’ प्रेमचंद की बुद्धि का विनष्ट हो जाना है।

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