उड़ीसा में किसी समय श्रमण संस्कृति बहुतायत में पुष्पित-पल्लवित थी। ईसा पूर्व 850 में जब भगवान पार्श्वनाथ ने इस क्षेत्र में विहार किया था, तब राजा अवाकिन्नायो करकंडु 23वें तीर्थंकर के महान भक्त बन गए और उन्होंने दीक्षा ली। वहां तत्कालीन राजाओं और उनकी परम्परा में अन्य सामन्तों ने जैन मंदिर, मूर्तियां, मठ बनवाये। ओडिशा के अविभाजित कोरापुट जिला में ईसा की चौथी शताब्दी में जैन सभ्यता-संस्कृति का परचम लहराता था। इतिहासकारों के अनुसार, जैन व्यापारी  अविभाजित कोरापुट क्षेत्र में रत्न संग्रहीत करने और व्यापार करने के लिए आए थे, उन्होंने वहां मठ की स्थापना की और नियमित पूजा-आराधना किया करते थे।
 सुनाबेड़ा से 16 किलोमीटर और कोरापुट से 34 किलोमीटर दूर एक गांव सुबाई में एक जीर्ण-शीर्ण मठ है। इसमें पांच मंदिरों का पुंज है, जिसमें तीर्थंकरों और शासनदेवियों की दुर्लभ मूर्तियां हैं।
  वर्तमान में सुबाई गांव के जैन मठ परिसर की अधिकतर मूर्तियां प्राचीन, मूर्तिकला व अत्यंत पुरातात्त्विक महत्व की हैं। जैन पुरातन प्रतिमा निर्माण विधा के अनुसार तीर्थंकर ऋषभनाथ के केशविन्यास, जटामुकुट और स्कंधों तक लटकती केश-लड़ियां दर्शाई जाती रहीं हैं, किन्तु यहां की तीर्थंकर ऋषभनाथ के केशविन्यास, जटामुकुट तो हैं ही, अन्य सभी बड़ीे मूर्तियों के भी सुंदर केश-विन्यास दर्शाये गये हैं। पर एक विभेद अवश्य है कि आदिनाथ की केश-जटायें स्ंकंधों पर भी लटकी हुई दर्शाई गई हैं।
 यहां की छह बड़ी प्रतिमाएं परिसर में खुले में बाहर स्थापित हैं, शेष जीर्ण मंदिरों में हैं। कुछ अन्यत्र संग्रह में रखीं प्रतीत होती हैं। बड़ी मूर्तियों में दो आदिनाथ की चौबीसी है। अर्थात् मुख्य प्रतिमा आदिनाथ की है, शेष तेईस तीर्थंकर उसके परिकर में बनाए गए हैं। परिकरस्थ अन्य तीर्थंकरों के चिह्न स्पष्ट हैं। आदिनाथ की दो अन्य एकल सपरिकर प्रतिमाएं हैं। इनके पादपीठ पर बीच में शासनदेवी चक्रेश्वरी निर्मित है। मध्य में चक्रेश्वरी है। एक के पादपीठ पर दायें गाय के समान मुख वाला गोमुख यक्ष निर्मित है व बायें तरफ अंजलिबद्ध आराधिका बैठी हुई है। पादासन में वृषभ लांछन भी दर्शाया गया है।
 एक पंचतीर्थी अर्थात् मुख्य प्रतिमा के अतिरिक्त उसके परिकर में चार अन्य तीर्थंकर भी हैं। इसके सिंहासन में मध्य में चतुर्भुज खड़ी हुई शासनदेवी दर्शाई गई है, पादपीठ में मध्य में लांछन भी है, किन्तु पाषाण क्षरित हो जाने के कारण अधिकतर परिकरस्थ आकृतियां अस्पष्ट हो गई हैं। इस प्रतिमा के दोनों ओर के चॅवरधारियों के दाहिने दाहिने हाथ में चॅवर धारण किये हुए दर्शाया गया है। यह विशेषता इन प्रतिमाओं के अति प्राचीन होने के संकेत हैं। एक एकल आदिनाथ की प्रतिमा के परिकरस्थ चॅवरवाहक भी दाहिने-दाहिने हाथ से चॅवर ढुराते हुए दर्शाये गये हैं।
 यहाँ एक दश भुजाओं वाली शासन देवी की एकल प्रतिमा है। इसका परिकर बहुत महत्वपूर्ण है। पादपीठ में प्रतीत होता है कि इस देवी के जीवन की घटनाओं का अथवा तीर्थंकर के जीवन की घटनाओं का चित्रण किया गया है। इसके वितान में भी कई आकृतियां हैं। देवी के मस्तक के ऊपरी वितान में मध्य में  सर्पफणयुक्त पद्मासनस्थ लघु तीर्थंकर और पादपीठ में भी मध्य में पद्मासन में एक लघु तीर्थंकर प्रतिमा है। स्थानीय लोग चूड़ी, फूल, सिंदूर चढ़ाकर इसकी पूजा करते हैं।
  कहाजाता है कि यहां अस्सी के दशक से 2010 तक सरकार पर्यटकों का आकर्षण बढ़ाने के लिए विभिन्न जैन उत्सवों का आयोजन करती थी। उन्होंने मंदिरों और मूर्तियों के संरक्षण पर भी ध्यान दिया। इनटरनेट पर पड़ी जानकारी के अनुसार वर्तमान में पुरातत्त्व विभाग की पूरी उदासीनता के कारण प्रतिमाएं पानी में भीगकर, धूप में जलकर नष्ट हो रही हैं। मंदिर टूट रहे हैं, कट कर पेड़ उग रहे हैं। मूर्ति चोरी की भी एक घटना हो चुकी है। यहां की पुरातात्त्विक धरोहर का पुनः संरक्षण होना चाहिए।
डॉ. महेन्द्रकुमार जैन ‘मनुज’
22/2, रामगंज, जिंसी, इन्दौर – 452006
मो. 9826091247  mkjainmanuj@yahoo.com
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