सामाजिक सौहार्द का राजनैतिक रंगमंच

पुणे के शनिवारवाड़ा परिसर में 19 अक्टूबर 2025 को कुछ मुस्लिम महिलाओं ने नमाज़ अदा की और इसके बाद सांसद मेधा कुलकर्णी ने वहाँ जाकर ‘गौमूत्र छिड़ककर शुद्धिकरण’ किया। यह घटना केवल धार्मिक भावनाओं का नहीं, बल्कि राजनैतिक उद्देश्यों का भी प्रतिबिंब है। क्योंकि, जैसे-जैसे चुनाव पास आते हैं, समाज में वैमनस्य फैलाने वाली घटनाएँ अचानक उफान पर आ जाती हैं और उनका राजनैतिक लाभ उठाया जाता है।

धर्म और भक्ति की गलतफहमी
इस्लाम धर्म में नमाज़ केवल उपासना नहीं, बल्कि जीवनशैली का एक हिस्सा है। कुरआन में दिन में पाँच बार नमाज़ पढ़ने का आदेश है और इसके लिए समय निर्धारित होता है। जब वह समय आता है, उस समय कहीं भी नमाज़ पढ़ना धर्म का कर्तव्य है। यह क्रिया किसी के विरोध में नहीं होती। किसी पार्क, रेलवे स्टेशन या यात्रा के दौरान नमाज़ पढ़ना पूरी दुनिया में सामान्य है। इसके पीछे कोई विशेष उद्देश्य नहीं होता। मगर कुछ लोग इस सामान्य क्रिया में भी धार्मिक आक्रमण या प्रदर्शन देख लेते हैं। यहाँ अज्ञान से ज़्यादा एक सोची-समझी डर की राजनीति दिखाई देती है। इस्लाम में नमाज़ भक्ति की सबसे महत्वपूर्ण क्रिया है, जो निश्चित समय पर की जाती है, क्योंकि यह समय अल्लाह से संवाद का माना जाता है। जब उन महिलाओं ने नमाज़ पढ़ी, तब शायद वह निश्चित समय रहा होगा। उनके इस कृत्य के पीछे ना कोई आंदोलन था, ना किसी की भावनाएँ आहत करने का उद्देश्य, लेकिन कुछ लोगों ने इस क्रिया को धार्मिक आक्रमण की तरह प्रस्तुत किया और वहीं से विवाद की चिंगारी भड़क उठी।

राजनैतिक रोटियाँ सेंकने की कोशिश

शनिवारवाड़ा जैसे ऐतिहासिक स्थल पर मुस्लिम महिलाओं द्वारा नमाज़ पढ़ने पर तत्काल और अतिरंजित प्रतिक्रिया देना- यह धार्मिक निष्ठा से ज़्यादा राजनीतिक अभिनय जैसा प्रतीत होता है। सांसद द्वारा गौमूत्र छिड़ककर शुद्धिकरण करने की क्रिया न केवल एक धर्म का अपमान है, बल्कि संविधान में निहित धर्मनिरपेक्षता के मूल्यों पर भी आघात है। पुणे जैसे शिक्षित शहर में इस प्रकार की घटनाएँ होना चिंताजनक हैं। चुनावी माहौल के बीच यह घटना वायरल होती है, प्रतिक्रियाएँ आती हैं और फिर धार्मिक ध्रुवीकरण को बढ़ावा देने वाला राजनीतिक नाटक शुरू हो जाता है। हम समाज में क्या संदेश दे रहे हैं? क्या विभिन्न धर्मों के लोग एक साथ नहीं रह सकते? धर्म के नाम पर वोट मांगने की राजनीति अब नई नहीं रही, लेकिन और अधिक खतरनाक ज़रूर बन गई है।

‘नमाज़’ वजह या बहाना?
जहाँ समाज एकजुट हो सकता है, वहाँ फूट डालने की राजनीति हो रही है। मराठा-ओबीसी आरक्षण का मुद्दा गरमाया हुआ है, शैक्षणिक बेरोज़गारी बढ़ रही है, किसानों की समस्याएँ अनसुलझी हैं, लेकिन इन मुद्दों पर चर्चा करने की बजाय, समाज का ध्यान धार्मिक अभिनय की ओर मोड़ा जा रहा है। पुणे की सौ वर्ष पुरानी सामाजिक और वैचारिक परंपरा के अनुसार उचित प्रतिक्रिया होनी चाहिए – चर्चा, संवाद और समझदारी। लेकिन वर्तमान राजनीति ‘प्रतिक्रिया’ पर जीवित है। किसी ने नमाज़ पढ़ी, तो किसी और ने गौमूत्र छिड़का – यह कौन सी संस्कृति का संकेत है?

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इस प्रकरण में एक और बात ध्यान देने योग्य है – नमाज़ पढ़ने वाली महिलाएँ समाज की साधारण महिलाएँ थीं। उन्होंने अपनी श्रद्धा के अनुसार दो मिनट की उपासना की। वे न किसी आंदोलन के लिए गई थीं, न किसी राजनीतिक प्रचार के लिए, लेकिन सोशल मीडिया पर उन्हें पूर्व नियोजित कृत्य के रूप में प्रस्तुत किया गया। इसके विपरीत, चुनाव के दौरान अक्सर उसी क्षेत्र में मुस्लिम महिलाएँ राजनीतिक प्रचार के लिए ‘किराए पर’ काम करते हुए देखी जाती हैं और तब कोई सवाल नहीं पूछता। इसका मतलब क्या यह है कि श्रद्धा दिखाना अपराध है, लेकिन राजनीतिक उपयोग करना स्वीकार्य?

शुद्धिकरण शब्द की वेदना
शुद्धिकरण शब्द इस घटना में सबसे अधिक पीड़ादायक है। किसी धर्म की उपासना से स्थान अशुद्ध हो गया- ऐसा अर्थ निकालना घोर असहिष्णुता का प्रतीक है। इस प्रकार के शब्द समाज में विश्वास और सौहार्द के धागे को कमजोर कर देते हैं। हम भूलते जा रहे हैं कि भारत सभी धर्मों का देश है। यहाँ मस्जिद, मंदिर, चर्च और गुरुद्वारा एक साथ सह-अस्तित्व में हैं। किसी का अस्तित्व किसी और की श्रद्धा के लिए ख़तरा नहीं होना चाहिए। इन घटनाओं में सोशल मीडिया और कुछ समाचार चैनलों की भी भूमिका होती है। एक दो मिनट का वीडियो काटकर दिखाया जाता है और उस पर भावनाओं का विस्फोट करवाया जाता है। न कोई पृष्ठभूमि, न समय, न परिस्थिति – लोग ‘तथ्य’ नहीं, ‘प्रतिक्रिया’ पर जीने लगे हैं। पत्रकारिता का मूल सिद्धांत होता है समाज में समझ पैदा करना, लेकिन आज की ‘टीआरपी पत्रकारिता’ में वही सिद्धांत गुम हो गया है।

असली जांच किसकी होनी चाहिए?
इस घटना से किसे राजनैतिक लाभ हुआ, यह असली जांच का विषय होना चाहिए, क्योंकि ऐसी घटनाएँ हमेशा चुनावी समय में ही क्यों होती हैं? जब बेरोज़गारी, महँगाई और भ्रष्टाचार पर बात होनी चाहिए, तब समाज की ऊर्जा धर्म बनाम धर्म जैसे खोखले विवादों में बर्बाद की जाती है। धार्मिक ध्रुवीकरण की राजनीति लोकतंत्र की आत्मा के लिए घातक है। अगर आज एक धर्म की उपासना प्रश्नचिन्ह बनती है, तो कल किसी और धर्म का उत्सव भी रोका जाएगा। शनिवारवाड़ा की पहचान धार्मिक संघर्ष से नहीं, बल्कि इतिहास, परंपरा और सांस्कृतिक विरासत से है। वहाँ नमाज़ पढ़ना कोई मुद्दा नहीं था- उसे मुद्दा बनाया गया। समाज को ऐसी घटनाओं को भावनाओं से नहीं, बल्कि विवेक से देखने की आवश्यकता है। यदि धर्मनिरपेक्षता की ताक़त बनाए रखनी है, तो राजनैतिक नाटक का शिकार बने बिना, शांति से सह-अस्तित्व के मूल्य को बचाना होगा, क्योंकि भक्ति और द्वेष एक साथ नहीं रह सकते।

सोशल मीडिया का ज़हरीला सच
इन सभी घटनाओं में सोशल मीडिया की भूमिका निर्णायक रही है। केवल 15 सेकंड का क्लिप काटकर पूर्वनियोजित नमाज़ का आरोप लगाया गया। सच्चाई की जगह अफवाहें ज़्यादा तेज़ी से फैलीं। इसके पीछे एक सोचा-समझा षड्यंत्र है- ध्रुवीकरण का। मीडिया की ज़िम्मेदारी होती है सत्य को सामने लाना, लेकिन आज कई चैनल और पेज व्यूज़ के लिए समाज में ज़हर फैला रहे हैं।

असली सवाल कौन से हैं?
मराठा-ओबीसी आरक्षण, बेरोज़गारी, किसान संकट, महिलाओं पर अत्याचार- इन पर बात करने की ज़रूरत है, लेकिन सत्ता पक्ष हो या विपक्ष- दोनों को आसान मुद्दे चाहिए होते हैं, जिनसे समाज बँट जाए, भावनाएँ भड़कें और सोचने की प्रक्रिया रुक जाए। शनिवारवाड़ा की घटना का उपयोग भी उसी पृष्ठभूमि पर होता दिख रहा है। धर्म अब एक राजनीतिक मुद्रा बन चुका है।

संविधान के मूल मूल्यों की याद
भारत की धर्मनिरपेक्ष प्रकृति हमारे लोकतंत्र की नींव है। किसी भी धर्म की उपासना को अशुद्धता मानना न सिर्फ इस्लाम की नहीं, बल्कि हिंदू धर्म की सहिष्णुता की भी अवहेलना है। भक्ति एक व्यक्तिगत भावना है, और यदि उसका राजनीतिक रूपांतरण हो रहा है, तो समाज का पतन निश्चित है। शनिवारवाड़ा संघर्षों की भूमि है, लेकिन वो स्वतंत्रता के संघर्ष, न कि धार्मिक संघर्ष। उस भूमि पर इस प्रकार के विवाद जन्म लेना हमारे लिए शर्मनाक है। नमाज़ पढ़ना अपराध नहीं है; अपराध है श्रद्धा के नाम पर नफ़रत को बढ़ावा देना। भारत की आत्मा सहिष्णुता में है – अगर वह खो गई, तो हार हम सबकी होगी।

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-आरिफ शेख, पुणे
मो. : 9881057868

 

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