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बाबूलाल काका
बाबूलाल काका से यूनिसेक्स पार्लर तक
बचपन में न्यू यार्ड, इटारसी के हमारे रेलवे क्वार्टर पर
बाबूलाल काका
हर महीने के पहले
इतवार की सुबह
घर पर आ जाया करते थे,
अपनी पुरानी साइकिल के
कैरियर पर लदी
टीन की छोटी- सी पेटी सहित।
सफेद मैला-सा पजामा
और किसी भी रंग की
आधी बांहों की शर्ट के साथ,
पेटी में होती थी दो कैंचियां
एक छोटी तो एक बड़ी,
एक पुराना मैला-सा कंघा,
सूअर के भूरे बालों वाला झबरा ब्रुश,
नीली डिबिया में फंसा सफेद साबुन,
फिटकरी का चिकना पत्थर,
नीले कवर में सुस्ताता उस्तरा,
हमारे भय का सामान- स्टील की मशीन,
जो गर्दन पर चलती थी, तो लगता था
कि अब बाबूलाल काका गर्दन को इस तरह छीलेंगे,
जैसे सुदाम काका अपने बसूले से छीलते हैं,
बरसात की सीलन में फूले हुए दरवाजे की चौखट।
एक मैला-सा तौलिया और एक नहरनी,
बस यही कुल जमा पूंजी थी,
हमारे इतवार के बाबूलाल काका की।
कटोरी और गरम पानी तो
उसे देना पड़ता था,
जिसके घर वे आए हैं
घर के पुरुषों के क्षौर कर्म हेतु।
जैसे-जैसे समय की
कैंची चलती रही
उम्र के बालों पर,
और भीगने लगी हमारी मसें,
और आ गई
कानों को छिपाने वाली,
अमिताभ बच्चन की हेयर स्टाइल,
और…
कान दर्शाती गर्दन पर झूलते बालों की
जितेंद्र, विनोद खन्ना की हेयर स्टाइल।
मूंछ और दाढ़ी पर
उगती कोंपलें तो,
कट जाती थी पिताजी की
पतली सी कैंची से,
पर इतवार की सुबह
हम दोनों भाई गायब होने लगे घर से,
बचने लगे बाबूलाल काका की कैंची से
क्योंकि बाबूलाल काका
तो हमें अमिताभ, जितेंद्र या विनोद खन्ना नहीं बना सकते थे,
वे तो हमें वही बना सकते थे,
जो हमारे पिताजी चाहते थे।
कॉलेज के दिनों में
हम नियमित रूप से
इतवार की सुबह
घर से गायब होते रहे,
बाबूलाल काका आते रहे,
पिताजी से बतियाते रहे,
और हम हमारे कॉलेज के
सहपाठी सराठे के
इटारसी के पुश्तैनी सलून में
अमिताभ, जितेंद्र, विनोद खन्ना
बनने की कोशिश करते रहे।
आज उम्र के इस पड़ाव पर,
चर्चगेट (मुंबई) के लैक्मे यूनिसेक्स पार्लर में बैठा हूं।
हेड मसाज, हेयरकट, स्पा, शेविंग, फेशियल…..
पैडिक्योर….मेनीक्योर….हेयर डाई …,
औरतें मर्द सब एक साथ,
एक छत के नीचे,
ठंडी हवा के झोंके,
एयर प्यूरीफायर की सुगंधित फ़ुहारें,
हल्का-हल्का बजता वेस्टर्न म्यूजिक,
लेकिन
बहुत याद आते हैं,
बाबूलाल काका।
मां की शिकायतों पर पड़ते
बाबूलाल काका के थप्पड़,
और मुंह-अंधेरे उठकर सैर एवं कसरत करने की,
भिनसारे स्नान करने की,
नाश्ता मिलने तक बैठकर पढ़ने की,
और अंत में बड़ा अफसर बनने की
बाबूलाल काका की हिदायतें।
बड़े अफसर तो बन गए हम लेकिन
अब न पिताजी रहे और न हीं बाबूलाल काका,
अब तो है यूनिसेक्स पार्लर,
जहां दरबान सर झुका कर
आपको विश करेगा,
केवल इस प्रत्याशा में
कि आप विदा होते समय
उसको देंगे भारी टिप।
अंदर कोई सुंदर या सुंदरी
आपको मनचाही सर्विस देगा/देगी,
लेकिन नहीं चलेगी उसकी जुबान
बाबूलाल काका और उनकी कैंची की तरह।
नहीं पूछेंगे वे आपके हाल-चाल,
सराठे केश कर्तनालय वालों की तरह,
आप लैक्मे वालों से
अपनी बीवी की शिकायत
उस तरह नहीं कर सकते,
जिस तरह आप अपने मां पिता के
तथाकथित अत्याचारों एवं भेदभावों की शिकायत
अकेले में बाबूलाल काका से कर दिया करते थे
एवं वे रास्ते पर ठहरकर
सुनते थे बड़े ध्यान से,
और प्यार से सिर पर
हाथ फेर कर कहते थे कि
मैं सब कुछ ठीक कर दूंगा, बच्चे !
तुम मत हो परेशान एवं दुखी,
हालांकि मुझे नहीं लगता कि
कभी उन्होंने इस संबंध में
मां पिताजी से की होगी बात।
आप लैक्मे वालों से यह नहीं
कह सकते कि आज नहीं है मेरे पास
पांच हजार रुपए
आपको देने के लिए,
जिस तरह आप बड़ी आसानी से
कह देते थे मित्र सराठे के चाचा जी को
कि जब मेरे पास पैसे आएंगे
तो मैं कॉलेज में मित्र सराठे को दे दूंगा।
न मेरे पास कभी पैसे आए,
न मैंने सराठे को दिए,
और न हीं चाचा जी ने कभी मांगे।
अब जब भी सुबह मैं शेविंग करता हूं,
तो आईने में मुझे रोज दिखते हैं,
बाबूलाल काका और
सराठे के चाचा जी।

– डॉ. विपिन पवार
