मामा जी
(लघुकथा)
अपने पिता को न देख पाने का दुख मामा जी को देखकर दूर हो जाता था। मयूर के लिए मामा जी ही सब कुछ थे। उसकी पढ़ाई लिखाई और जरूरतों की पूर्ति मामा जी ही करते थे। एक लिहाज से मां और मामा जी मयूर के जीवन के आधार थे। मयूर पढ़ने में होशियार था, इसलिए मामा जी उसे अपने बेटे से भी ज्यादा चाहते थे। कभी कभी मामीजी इसे पसंद नहीं करतीं, परंतु अपनी विधवा ननद की मजबूरियों तथा मयूर की होशियारी और अच्छे व्यवहार की वजह से कुछ बोलती नहीं थीं। मयूर का घर का नाम बंटी था और मामा जी हमेशा बंटी ही कह कर पुकारते थे। शायद ही कभी मयूर कहकर पुकारा हो।
मयूर जवान हो गया और अपने ही शहर की एक कंपनी में एकाउंटेंट बन गया। मामा जी से सहायता लेने में कमी आती गई और धीरे धीरे बंद हो गई। मामा जी का पुत्र अचानक छोटी सी बीमारी के कारण चल बसा था और मामा जी शरीर से ही नहीं मन से भी कमजोर हो गए। उनकी याददाश्त कम हो गई। आमदनी भी कम हो गई। कपड़े लत्तों का भी ध्यान नहीं रहता। फिर भी मयूर से कोई सहायता स्वीकार नहीं करते थे।
एक दिन चलते चलते वे उस कंपनी के अहाते में चले गए जहां मयूर काम करता था। पता नहीं कैसे उन्हें याद आ गया कि बंटी इसी कंपनी में काम करता है। उनमें कुछ उत्साह का संचार हुआ पर बंटी का नाम मयूर है यह उन्हें याद नहीं आया और जो मिलता उससे पूछते कि बंटी कहां है, मुझे उससे मिलना है। मयूर का ऑफिस दूर नहीं था और बाहर होने वाली बातचीत सुनाई देती थी। मयूर ने बंटी शब्द सुना तो चौंक गया। बड़बड़ाया मामा जी, उठकर खिड़की से झांक कर देखा। उसके मामा जी ही थे, परंतु वे इतने मैले कुचले कपड़े पहने हुए थे कि बाहर निकल कर उनसे मिलने की उसे हिम्मत नहीं हुई। हृदय में हलचल मची हुई थी कि उसके पालनहार मामा जी उसके सामने हैं और वह मिलने से कतरा रहा है। मामा जी धीरे धीरे अहाते से बाहर निकले और फिर कभी भी मयूर के सामने नहीं आए।
आज भी मयूर बंटी सुनने को तरस रहा है और अपने आप पर पछता रहा है। जब कोई मैले कपड़े पहने कोई वृद्ध उसे दिखाई देता है तो मामा जी समझ मन ही मन प्रणाम करता रहता है।
लघुकथा प्रकाशित करने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद दिनेश जी।