सत्य की खोज

(पुस्तक समीक्षा)
सत्य की खोज
मानवेन्द्र प्राकृतेय उर्फ राजेश श्रीवास्तव ने ‘सीधा सत्य’ नामक अद्भुत और आध्यात्मिक किताब लिखी है, जिसका हाल ही में पुणे के महाराष्ट्र राष्ट्रभाषा सभा में भूतपूर्व विधायक व सभा के अध्यक्ष उल्हास पवार के करकमलों द्वारा विमोचन हुआ। इस किताब को हड़पसर एक्सप्रेस के दिनेश चंद्रा ने प्रकाशित किया है।
‘सीधा सत्य’ शीर्षक के अंतर्गत राजेश श्रीवास्तव ने आठ-आठ पंक्तियों की एक सौ एक कविताएँ लिखी हैं। सर्वात्मोपनिषद शीर्षक के अंतर्गत अन्य उपशीर्षकों में अपने विचार प्रकट किए हैं।
वे सीधा सत्य ‘है’ भूमिका में लिखते हैं- ब्रह्म सत्यम् जगत् मिथ्या यह उपदेश मंत्र या महामंत्र, जागरण का मंत्र हमारे ऋषियों ने सुबुद्धों द्वारा, वेदों सहित समस्त इतिहास में दिया गया है, यानी ब्रह्म ही सत्य है, जगत् मिथ्या है, जगत् माया है। प्रश्न यह है, जो महामंत्र है, इसे जाना किसने? …स्पष्ट कहूं तो सत्य ‘है’ बस! यह तर्कातीत है, यह सर्वदा है, यही बोध है, सरल-सहज-बोध-सुंदर- जीवन का प्राकट्य है।
‘सीधा सत्य’ : शीर्षक के अंतर्गत के लिखते हैं-
अच्छा-बुरा, पुण्य-पाप, सारे ही मन के धोखे हैं। जब चाहो और जहाँ से चाहो/ जानो-जागो मौके हैं! न ही तुम और न ही भगवान, न ही परमात्मा… न ही ईश्वर/ जीव- अंश या ब्रह्म-भेद क्या, क्या अमर और क्या नश्वर?
दरअसल ईश्वर का निर्माण भी मानव के कल्पना की उपज है। मानव ने अनेकों ईश्वर गढ़े, अनेकों धर्म गढ़े और जाति-पांति, वर्ण, विविध भाषा, देश बनाए। संत ज्ञानेश्वर ने कहा है कि विश्व मेरा घर है, वे विश्वात्मा का स्मरण करते हैं फिर भेदभाव क्यों?
वे लिखते हैं- ‘मैं आया हूँ यहां घोषणा करने पूर्ण स्वतंत्रता की। समग्र राज्य-धर्म-भेद की जंजीरें काटूंगा परतंत्रता की। मनुज स्वतंत्र है, नहीं किसी भी/पर रचित व्यवस्था का वह दास/धर्म-समाज-राजसत्ताओं से मुक्त हो, ले जग में, निर्भय श्वांस।
वे आगे लिखते हैं- इस ईश्वर की परछाई ने/जो है झूठी, इतना बांटा है। यह रूप नाम में भ्रमित विश्व/जीवन को इसने काटा है। कितनी जंजीरें तुमने ही/अपने ही हाथों से खुद को पहनाईं/अब खुद उनसे ही डरते हो! अपने ही बनाए भगवानों से भयभीत हुए क्यों मरते हो?
दरअसल मानव की आज भी अस्तित्व की लड़ाई जारी है। वे लिखते हैं- सब-कुछ प्रकट प्रत्यक्ष सदा है फिर भी तुम तैयार नहीं हो! देखो! सत्य सदैव नग्न है। यदि ‘तुम’ खुद इसमें दीवार नहीं हो! छोड़ो धरम और ये मजहब/ बस तुम जाग स्वयं में जाओ/ प्रकट और प्रत्यक्ष यहां सब।
कबीर ने भी कहा है, ‘मौको कहां ढूंढे रे बंदे मैं तो तेरे पास रे। ना में देवल, ना मैं मस्जित, ना काबा कैलास में।’ इसी तर्ज पर वे लिखते हैं- नहीं कोई अद्वैत-द्वैत है। नहीं कोई भक्त-भगवान! नहीं कोई कर्मकांड है। नहीं कोई पशु या इंसान!
राजेश जी मानव को अपने अस्तित्व को तलाशने की सलाह देते हैं और खुद को खुद में प्रकट करके प्रेम की गरिमा से मानव को भरने पर बल देते हैं। मानव स्वयं सच्चिदानंद है।
महाभारत हमें संदेश देता है कि हमें युद्ध नहीं शांति चाहिए। आज भी विश्व में युद्ध जारी है। इस पर वे भाष्य करते हैं- ‘इस मनुष्य ने रच लिए प्रेम के शव पर युद्ध। कर लिया स्वयं की यात्रा को अवरुद्ध। विनाश… विनाश… विनाश…। हर बदन के हर पोर से फूटता उबलता लाल लहू/ यह विकास या ह्रास।
कवि ने सवाल किया है कि यह कैसा युद्ध है? यह कैसा विकास है। यह तो ह्रास है। युद्ध विराम होना चाहिए। सारे विश्व में अमन-चैन की बंसी तब बजेगी जब मानव-मानव से प्रेम करेगा।
सारांश में कवि ने ईश्वर-धर्म-मजहब को नकारकर सत्य की खोज करने का संदेश दिया है। महात्मा गांधी ने पहले कहा- ‘ईश्वर सत्य है।’ पच्चीस वर्षों के बाद उन्होंने कहा- ‘सत्य ही ईश्वर है।’ सीधा सत्य किताब पढ़नीय, मननीय और विचारणीय है।

समीक्षक
प्रोफेसर डॉ. ओमप्रकाश शर्मा
आबासाहब गरवारे महाविद्यालय, पुणे के पूर्व हिंदी विभागाध्यक्ष
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