June 18, 2025

पाखंड के आयाम

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Satyedra Singh

लघुकथा
पाखंड के आयाम

मैं समुद्र के पास रहता था, इसलिए रोज समुद्र के किनारे घूमने जाता। सुबह छ: बजे से सात बजे तक। काफी लोग सैर करते हुए दिखाई देते। कुछ परिचित और कुछ अपरिचितों से परिचय हो जाया करता। गप शप और सैर एक साथ। इधर-उधर की जानकारी भी मिल जाती। सुबह किनारे सुबह की हवा बहुत आनंद देती है, प्राणवायु जो ठहरी।

रेती के किनारे बड़े-बड़े काले पत्थर हैं, वहां और उन पर बैठ कर सुस्ताने वाले भी दिखते। कुछ जोड़े में भी रहते। हंसते खिलखिलाते। बड़ा अच्छा लगता।
एक दिन एक काले पत्थर पर नजर टिक गई। लगा कि मेरे अच्छे परिचित हैं परंतु वे ऊपर से नीचे एकदम काले कपड़े धारण किए हुए थे और चेहरा नीचे किए हुए। मुझे संकोच हो रहा था कि नजदीक जाऊं या नहीं क्योंकि ऐसी वेषभूषा में कभी देखा नहीं था। कद काठी से वही परिचित से लग रहे थे। फिर भी संकोच वश मैं उनके नजदीक नहीं गया।

लेकिन सैर करते-करते कब उनके नजदीक पहुंच गया इसका आभास ही नहीं हुआ। अपने पास किसी की उपस्थिति महसूस करके उन्होंने अपना चेहरा ऊपर उठाया और मैंने देखा वही थे पर उन्हें देखते ही आश्चर्य मिश्रित आप मेरे मुंह से निकला। मैंने उन्हें काले कपड़ों में देखने की कभी कल्पना भी नहीं की थी। हमेशा सामान्य वस्त्रों में ही देखा था। काले कपड़े और वे भी नीचे काली लुंगी और काला लंबा कुर्ता। मेरी आवाज़ सुनकर उनके चेहरे पर एक फीकी सी मुस्कान आई। कुछ बोले नहीं। मैं भी आगे कुछ नहीं बोला क्योंकि मुझे लगा कि किसी उद्देश्य से अघोर साधना तो नहीं कर रहे। उनके नेत्रों में लालामी और सपाटपन कुछ ऐसा ही संकेत दे रहे थे।
शहर के विद्वानों में उनकी गिनती होती थी। मुझे लगा कि अच्छी प्रतिभाएं भी पाखंड की शिकार हो जाते हैं?

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डॉ. सत्येंद्र सिंह
पुणे (महाराष्ट्र)

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