कफ़न के ताने-बाने (भाग-3)

कफ़न के ताने-बाने (भाग-3)

कफ़न के ताने-बाने (भाग-3)

कफ़न के ताने-बाने (भाग-3)

दुनिया के किसी भी साहित्य में से कोई भी अच्छी कहानी उठाकर देख लीजिए, यदि कलात्मक रचना सही है, तो कहानी अपने द्वारा उठाए गए प्रश्नों के उत्तर स्वयं देती है। स्पष्ट रूप से नहीं तो सांकेतिक रूप से, लेकिन प्रश्नों के उत्तर या समस्याओं के समाधान उसमें अंतर्निहित रहते हैं… महान कला वही है जो अपने देशकाल की समस्याओं के सबसे सही समाधानों तक पहुंचती है। प्रेमचंद की ज्यादातर कहानियाँ ऐसी ही हैं और उन्हीं कहानियों की वजह से प्रेमचंद महान लेखक हैं, लेकिन ‘कफन’ के साथ दिक्कत यह है कि वह किसानों की मुक्ति की समस्या तो उठाती है, उसका समाधान नहीं सुझाती।

…आधुनिकतावादी कलावादी लोग अच्छी कहानी उसे मानते हैं, जो केवल प्रश्न उठाए, उनके उत्तर न दे। उत्तर देने वाली कहानी को वेसुधारवादी, आदर्शवादी, प्रचारवादी आदि कहते हैं और कलात्मक मानने से इनकार करते हैं, लेकिन कलात्मकता की उनकी यह कसौटी कला को नष्ट करनेवाली कसौटी है, क्योंकि वह रचना से पूर्णता की नहीं, उद्देश्यहीनता की माँग करती है- जिम्मेदारी की नहीं, गैर जिम्मेदारी कि माँग करती है। ये लोग चाहते हैं कि हम ऐसी कहानियाँ लिखें, जिनमें ये अपने मनचाहे अर्थ मनमाने ढंग भर सकें और इस प्रकार अपने उद्देश्यों के लिए हमारा और हमारी कहानी का इस्तेमाल कर सकें। प्रेमचंद की अन्य कहानियाँ उन्हें यह मौक़ा नहीं देती, लेकिन ‘कफन’ यह मौक़ा देती है, इसलिए उन्हें प्रेमचंद की यही कहानी पसंद है। उन प्रगतिशील, जनवादी और मार्क्सवादी कहलाने वाले लेखकों और आलोचकों को क्या कहा जाए, जो यथार्थवादी कहानी के अपने सौंदर्यशास्त्र और समीक्षा-सिद्धांत का विकास करने के बजाय कहानी-समीक्षा में आधुनिकतावादी-कलावादी लोगों की भ्रामक मान्यताओं को अपनाकर ‘कफन’ से प्रेमचंद की परंपरा को आगे बढ़ाने का उपदेश देते हैं, लेकिन क्या प्रेमचंद की परंपरा केवल ‘कफन’ की परंपरा है?

इन परस्पर-विरोधी वादों-विवादों या प्रतिवादों को देखकर साहित्य का सीधा-सादा पाठक यदि भ्रमित न हो सके, तो आश्चर्य ही होगा। ऐसा लगता है कि यदि प्रेमचंद स्वयं जीवित होते तो इन मत-मतान्तरों को पढ़-देखकर उनका भी माथा चकरा गया होता। ‘कफन’ के लेखन तक आते-आते क्या वे सचमुच ही सठिया गए थे, उनकी बुद्धि विनिष्ट हो गई थी? क्या प्रेमचंद अपने घोषित ‘आदर्शोन्मुखी यथार्थवाद’ को पूर्णत: (कफन में) तिलांजलि दे चुके थे? क्या ‘कफन’ नितांत व्यक्तिवादी कहानी है? क्या ‘कफन’ के लेखक वर्ण-व्यवस्थावादी, जातिवादी या सामन्तवादी दिखाई देते हैं? क्या ‘कफन’ अपने सृष्टा की पूर्ववर्ती कहानी-शृंखला की अगली कड़ी नहीं है? क्या‘ कफन में उठनेवाले प्रश्नों की ओर लेखक का कोई संकेत दिखाई नहीं देता?

डॉ. केशव प्रथमवीर
पूर्व हिंदी विभागाध्यक्ष
सावित्रीबाई फुले पुणे विद्यापीठ

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