कफ़न के ताने-बाने (भाग-5)
कफ़न के ताने-बाने (भाग-5)
पुराने मेंजमाने में समाज की लगाम मजहब के हाथ में थी। …अब साहित्य ने यह काम अपने हाथ ले लिया है और उसका साधन सौन्दर्य प्रेम है। …प्रकृति-निरीक्षण और अपनी अनुभूति की तीक्ष्णता की बदौलत उसके (साहित्यकार के) सौन्दर्यबोध में इतनी तीव्रता आ जाती है कि जो कुछ अभद्र है, असुंदर है, मनुष्यता से रहित है, वह उसके लिए असह्य हो जाता है। उस पर वह शब्दों और भावों की सारी शक्ति से वारकरता है। यों कहिए कि वह मानवता, दिव्यता और भव्यता का बाना बाँधे होता है। जो दलित, पीड़ितहै, वंचित है-चाहे वह व्यक्ति हो, या समूह, उसकी हिमायत और वकालत करना हमारा फर्ज है।
वह कहानी लिखता है, पर वास्तविकता का ध्यान रखते हुए, मूर्ति बनाता है पर सी कि उसमें सजीवता हो और भावव्यंजकता भी – वह मानव-प्रकृति का सूक्ष्म करेंअवलोकन करता है, मनोविज्ञान का अध्ययन करता है कि उसके पात्र हर हाल में, हर मौके पर, इसतरह आचरणकरें, जैसे रक्त-मांस का बना मनुष्य करता है। अपनी सहज सहानुभूति और सौन्दर्य-प्रेम के कारण वह जीवन के उन सूक्ष्म स्थानों तक जा पहुँचा है, जहाँ मनुष्य अपनी मनुष्यता के कारण पहुँचने में असमर्थ होता है। …हमें केवल इतना सोचने से संतोष नहीं होता कि मनोविज्ञान की दृष्टि से सभी पात्र मनुष्य से मिलते-जुलते हैं, बल्कि हम यह इत्मीनान चाहते हैं कि वे सचमुच के मनुष्य हैं और लेखक ने यथासंभव उनका जीवन-चरित्र लिखा है, क्योंकि कल्पना से गढ़े हुए आदमियों में हमारा विश्वास नहीं रहा है। उनके कार्यों और विचारों से हम प्रभावित नहीं होते। हमें इसका निश्चय होना चाहिए कि लेखक ने जो सृष्टि की है, वह प्रत्यक्ष अनुभव के आधार पर की गयी है और अपने पात्रों की जवान में वह खुद बोलरहा है। इसलिएसाहित्य को कुछ आलोचकों ने लेखक का मनोवैज्ञानिक जीवन-चरित्र कहा है।
प्रगतिशील लेखक संघ, यह नाम ही मेरे विचार से गलत है। साहित्यकार या कलाकार स्वभावतः प्रगतिशील होता है। अगर यह उसका स्वभाव न हो, तोशायद वह साहित्यकार ही न होता । उसे अपने अन्दर भी एक कमी महसूस होती है और बाहर भी।इसी कमी को पूरा करने के लिए उसकी आत्मा बेचेनरहती है।इसलिए वर्तमान मानसिक और सामाजिक अवस्थाओं से उसका दिल कुढ़ता रहता है। वह अप्रिय अवस्थाओं का अंत कर देना चाहता है। जिससे दुनिया में जीने और मरने के लिए इससे अधिक अच्छा स्थान हो जाए। यही वेदना और भाव उसके हृदय और मस्तिष्क को सक्रिय बनाए रखता है।उसका दर्द से भरा ह्रदय इसे सहन नहीं कर सकता कि एक समुदाय क्यों सामाजिक नियमों और रूढ़ियों के बंधन में पड़कर कष्ट भोगता रहे? क्यों न ऐसे सामान इकट्ठे किए जाएँ कि वह गरीबी ओर गुलामी से छुटकारा पा जाए?
डॉ. केशव प्रथमवीर
पूर्व हिंदी विभागाध्यक्ष
सावित्रीबाई फुले पुणे विद्यापीठ
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