महाराष्ट्र विधानमंडल के दोनों सदनों के सदस्यों को उपराष्ट्रपति के अभिभाषण का मूल पाठ

महाराष्ट्र विधानमंडल के दोनों सदनों के सदस्यों को उपराष्ट्रपति के अभिभाषण का मूल पाठ

महाराष्ट्र विधानमंडल के दोनों सदनों के सदस्यों को उपराष्ट्रपति के अभिभाषण का मूल पाठ

आप सभी के बीच आज उपस्थित होना मेरे लिए बड़े सम्मान की बात है।

मैं विधानसभा अध्यक्ष राहुल नार्वेकर जी और परिषद की उपसभापति डॉ. नीलम गोरहे जी का आभारी हूँ कि उन्होंने मुझे एक महत्वपूर्ण विषय पर अपने विचार आप सभी के साथ साझा करने का यह बहुमूल्य अवसर प्रदान किया।

इस सदन ने अपनी स्थापना के समय से ही लोगों की सेवा को सर्वोच्च सम्मान दिया है।

महाराष्ट्र विधान परिषद अपना शताब्दी समारोह मना रहा है। इस उल्लेखनीय अवसर पर दोनों सदनों के सदस्यों को संबोधित करना वास्तव में सौभाग्य और सम्मान की बात है।

महाराष्ट्र राज्य अपने समृद्ध इतिहास, जीवंत संस्कृति और बहुआयामी अर्थव्यवस्था के कारण  प्रेरणा का स्रोत बना हुआ है। राज्य को सह्याद्री के लुभावने परिदृश्य और कोंकण के प्राचीन समुद्र तटों का आशीर्वाद मिला है। महाराष्ट्र आज एक ऐसा पावरहाउस है जो देश को नई ऊंचाइयों पर ले जा रहा है।

माननीय सदस्यों, इस महान पुण्य भूमि में आकर मुझे एक गीत याद आता है।

देखो मुल्क मराठों का यह

यहां शिवाजी डोला था

मुग़लों की ताकत को जिसने

तलवारों पे तोला था

हर पर्वत पे आग जली थी

हर पत्थर एक शोला था

बोली हर-हर महादेव की

बच्चा-बच्चा बोला था

शेर शिवाजी ने रखी थी

लाज हमारी शान की

इस मिट्टी से तिलक करो

ये धरती है बलिदान की”

मैं इस धरती को नमन करता हूँ।

शिवाजी महाराज की इस महान भूमि ने सदियों से हमारी मातृभूमि की प्रगति में अग्रणी भूमिका निभाई है, उल्लेखनीय उपलब्धियां हासिल की हैं और भारत के इतिहास में महत्वपूर्ण योगदान दिया है।

भारत का इतिहास शिवाजी महाराज के बिना अधूरा नजर आता है।

मराठा स्वराज्य के सिद्धांत, दुनिया भर में सार्वजनिक सेवा में अधिक दक्षता, उत्तरदायित्व और जवाबदेही की प्रेरणा देने के लिए, अपने प्रशासनिक ढांचे में, विकेन्द्रीकृत राजनीति, योग्यता, कानून का शासन, आर्थिक विकास और लोक कल्याण को शामिल करते हुए, एक मॉडल के रूप में कार्य करते हैं।

माननीय सदस्यगण, हमारे संविधान निर्माताओं ने संविधान के भाग XV में, जो हमारे लोकतंत्र के हृदय, चुनावों से संबंधित है, में उचित रूप से निडर छत्रपति शिवाजी महाराज को गौरवपूर्ण स्थान दिया है। भाग XV जो चुनावों से संबंधित हैं; में 22 पेंटिंग हैं।  जो पेंटिंग लगाई गई हैं  वह शिवाजी महाराज की है।

माननीय सदस्यगण, लोकतंत्र की इस प्रतिष्ठित संस्था के संरक्षक और विधायक के रूप में, जनता के हितों की रक्षा करना आपका पवित्र कर्तव्य है।

आपका मिशन, पक्षपातपूर्ण हितों को परे रखते हुए, भारत के सभी नागरिकों के कल्याण और सुरक्षा को सुनिश्चित करते हुए, सामान्य भलाई के सिद्धांतों के साथ निकटता से जुड़ना होना चाहिए।

माननीय सदस्यगण! हमारा इतिहास बहुत समृद्ध है, हमारी सभ्यता 5000 वर्षों से अधिक पुरानी है। प्राचीन काल से ही भारत में लोकतांत्रिक मूल्य गहराई से जुड़े रहे हैं।

इसलिए इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि मानव आबादी के छठे हिस्से का घर होने के नाते हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र हैं, और लोकतंत्र की जननी भी हैं, जिसकी ओर दुनिया भर के देश परामर्श के लिए देखते हैं!

अभूतपूर्व आर्थिक उन्नति और कूटनीतिक कौशल के साथ, समकालीन वैश्विक परिदृश्य में, भारत की प्रासंगिकता पहले से कहीं अधिक है। और इसका उत्थान निरंतर बढ़ रहा है और अब इसे रोकना असंभव है।

इस पृष्ठभूमि में, आज का विषय “हमारे देश में लोकतांत्रिक मूल्यों और नैतिकता का संवर्धन” अत्यंत प्रासंगिक है। भारत को पूरे विश्व में लोकतंत्र के एक आदर्श उदाहरण के रूप में उभरना है।

प्राचीन काल से ही नैतिकता और सदाचार भारत में सार्वजनिक जीवन की पहचान रहे हैं। नैतिकता और सदाचार मानव व्यवहार का सुगंध और सार हैं। ये सार्वजनिक जीवन के अभिन्न पहलू हैं और संसदीय लोकतंत्र के लिए अनिवार्य हैं।

संसद और राज्य विधानमंडल लोकतंत्र के ध्रुवतारे हैं। संसद और विधानमंडल के सदस्य प्रकाश स्तंभ हैं। लोग अपनी समस्याओं के समाधान और आगे बढ़ने के तरीके के लिए आपकी ओर देखते हैं इसलिए सांसदों और विधानमंडल में शामिल लोगों का यह दायित्व और कर्तव्य है कि वे अनुकरणीय आचरण का उदाहरण प्रस्तुत करें।

लोकतांत्रिक मूल्यों को नियमित पोषण की आवश्यकता होती है। जैसे सीखना कभी बंद नहीं होता, भले ही आप कॉलेज छोड़ दें, आपको सीखना जारी रखना होगा। लोकतांत्रिक मूल्य एक बार की घटना नहीं हैं, उन्हें 24X7 पोषित करना पड़ता है। लोकतांत्रिक मूल्य तभी पनपते हैं जब हर तरफ सहयोग और उच्च नैतिक मानक हों।

राष्ट्र तब निर्बाध, सुचारू रूप से और तेजी से आगे बढ़ता है जब इसके तीन अंग, विधायिका, न्यायपालिका और कार्यपालिका, अपने-अपने क्षेत्रों में काम करते हैं। शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत का कड़ाई से पालन किया जाना चाहिए। एक संस्था द्वारा दूसरे के क्षेत्र में घुसपैठ संभावित रूप से सब कुछ बिगाड़ सकती है। विधायिका को इस नाजुक संतुलन को बनाए रखना होगा।

कानून बनाना विधानमंडल और संसद का विशेष अधिकार क्षेत्र है, जो संवैधानिक दिशानिर्देश के अधीन है। हमारे पास स्पष्ट वैधानिक नुस्खों के सामने कार्यपालिका और न्यायपालिका द्वारा निर्देश दिए जाने के पर्याप्त उदाहरण हैं। विधानमंडलों का संवैधानिक दायित्व है कि वे इन उल्लंघनों का सर्वसम्मति से समाधान निकालें। इसलिए, मैं आग्रह करता हूँ कि हमारे लोकतंत्र के इन स्तंभों के शीर्ष पर बैठे लोगों के बीच बातचीत के संरचित तंत्र के विकास की आवश्यकता है।

और यह तभी संभव है जब लोकतंत्र के इन मंदिरों के पवित्र परिसरों में बेहतर प्रदर्शन हो। वे यह सुनिश्चित करने के लिए प्रदर्शन करते हैं कि राज्य के तीनों अंगों द्वारा संयुक्त रूप से पूर्ण प्रदर्शन हो। लोकतंत्र के लिए यह सामंजस्य बहुत जरूरी है और एक बार जब हम इसे हासिल कर लेंगे तो हमारी अभूतपूर्व प्रगति होगी।

यह स्पष्ट है कि वर्तमान में हमारी संसद और विधानमंडलों के कामकाज में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है। लोकतंत्र के ये मंदिर रणनीतिक व्यवधानों और अशांति के कारण अपवित्र हो रहे हैं। पार्टियों के बीच संवाद गायब है, यह आवश्यक है और इससे कोई बच नहीं सकता है। सदन के सभी वर्गों के बीच मैत्रीपूर्ण सहयोगात्मक संवाद होना चाहिए। पार्टियों के बीच संवाद गायब है और जिस तरह से आप संबोधित करते हैं, चर्चा के स्तर में भारी गिरावट है।

मैं राज्य सभा की आचार समिति की ओर ध्यान दिलाना चाहता हूँ, जो देश में अपनी तरह की पहली समिति है। पिछली सदी के अंत में इसका गठन वास्तव में भारतीय संसद के इतिहास में एक महत्वपूर्ण घटना थी।

प्रतिष्ठित नेता स्वर्गीय श्री एस.बी. चव्हाण की अध्यक्षता में गठित प्रथम आचार समिति ने 1998 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की, जिसमें सांसदों के लिए अन्य दायित्वों के साथ-साथ दो मौलिक दायित्व निर्धारित किए गए:

  • सदस्यों को ऐसा कुछ नहीं करना चाहिए जिससे संसद की प्रतिष्ठा धूमिल हो तथा उनकी विश्वसनीयता प्रभावित हो।
  • सदस्यों को संसद सदस्य के रूप में अपनी स्थिति का उपयोग लोगों के कल्याण के लिए करना चाहिए।

माननीय सदस्यगण, इन दोनों पहलुओं का लिटमस टेस्ट रिपोर्ट वास्तव में चिंताजनक है। स्वस्थ निर्देशों के पालन में अक्सर उल्लंघन होता है।

सौहार्दपूर्ण होने के बजाय यह टकरावपूर्ण है, जिसमें सौहार्दपूर्ण व्यवहार की जगह विरोधी रुख ने ले ली है। लोकतांत्रिक राजनीति एक नए निम्न स्तर पर पहुंच गई है और तनाव और दबाव बढ़ गया है।

इस तरह के विस्फोटक और चिंताजनक स्थिति के लिए सभी स्तरों पर, विशेषकर राजनीतिक दलों में आत्मनिरीक्षण की आवश्यकता है।

माननीय सदस्यगण, सम्मानित विधानमंडल के सदस्य के रूप में, हम पर न केवल अपने देश के कानूनों की बल्कि अपने विधानमंडलों की गरिमा और विश्वसनीयता को बनाए रखने की भी बहुत बड़ी जिम्मेदारी है। हमारे मतदाताओं द्वारा हमें यह पवित्र कर्तव्य सौंपा गया है कि हम उनकी आवाज़ और आकांक्षाओं का ईमानदारी और निष्ठा के साथ प्रतिनिधित्व करें।

यह जरूरी है कि हमारा आचरण ऐसा हो, जो कानून निर्माता के रूप में हमारी भूमिका के अनुकूल हो। हमारे कार्य हमेशा नैतिक आचरण और पारदर्शिता के उच्चतम मानकों के अनुरूप होना चाहिए। इससे कमतर कुछ भी हमारे संस्थान के सम्मान को न केवल कम करता है बल्कि हम जिन लोगों की सेवा करते हैं उनके भरोसे को भी कम करता है। नैतिकता और आचार-विचार में कोई प्रतिशत नहीं हो सकता है नैतिकता और आचार-विचार 100% होती है।

शिष्टाचार और अनुशासन लोकतंत्र का हृदय और आत्मा हैं। लोकतंत्र की ताकत विचारों की विविधता और रचनात्मक जुड़ाव के माध्यम से आम राय खोजने की क्षमता में निहित है। यह एक ऐसी प्रणाली है जो संवाद, बहस, चर्चा और विचार-विमर्श पर काम करती है।

सांसद किसी वाद-विवाद करने वाले समाज का हिस्सा नहीं हैं। वे इस बात में शामिल नहीं होते कि बहस में कौन जीतता है, क्योंकि वे एक साझा उद्देश्य के लिए काम कर रहे होते हैं और इसलिए मैं सांसदों और विधानमंडल के सदस्यों से दृढ़ता से सिफारिश करता हूँ कि वे मानवता, उदात्तता और विनम्रता में योगदान करें।

हमें हमेशा दूसरों के दृष्टिकोण के प्रति उदार रहना चाहिए। दूसरे दृष्टिकोण पर विचार करने की आवश्यकता है। दूसरे दृष्टिकोण को बिना विचार किए तुरंत खारिज कर देना लोकतांत्रिक मूल्यों के विपरीत है। हमें संवाद और चर्चा में विश्वास रखना चाहिए।

ऐतिहासिक रूप से, हमारी विधान सभाएँ और संसद काफी हद तक शांत और संयमित तरीके से काम करती रही हैं। संविधान सभा का उल्लेखनीय और कुशल कामकाज हमारा आदर्श होना चाहिए। अत्यधिक विभाजनकारी, भावनात्मक और विवादास्पद मुद्दों पर सहमति और सामंजस्य से शालीन तरीके से चर्चा की गई। लगभग तीन वर्षों की अवधि में संविधान सभा में कोई भी व्यवधान या विक्षेप नहीं देखा गया, नारेबाज़ी और सदन के वेल में भीड़ के आने की घटना भी न्यूनतम रही।

आज, विधानमंडलों में बहस, संवाद, विचार-विमर्श और चर्चा का परिणाम व्यवधान और अशांति ने ले ली है। भारतीय राजनीतिक व्यवस्था में सब कुछ ठीक नहीं है, यह बहुत तनाव में काम कर रही है।

राजनीति को हथियार बनाकर संसद की कार्यवाही को बाधित करना हमारी राजनीति के लिए गंभीर परिणाम लेकर आएगा।

माननीय सदस्यगण, हमारे विधानमंडलों में लोकतांत्रिक मूल्यों और संसदीय परंपराओं का कड़ाई से पालन किए जाने की अत्यंत आवश्यकता है। हाल ही में संसद सत्र में जिस तरह का आचरण देखने को मिला, वह वास्तव में दुखद है, क्योंकि यह हमारे विधायी विमर्श में महत्वपूर्ण नैतिक क्षरण को दर्शाता है।

यह बहुत चिंताजनक है कि अध्यक्ष या स्पीकर को सुविधाजनक पंचिंग बैग बनाने की प्रवृत्ति बढ़ी है। यह अनुचित है। जब हम कुर्सी पर बैठते हैं तो हमें सबके लिए समान होना चाहिए, हमें निष्पक्ष होना चाहिए। कभी-कभी वर्तमान में काम करना और कभी-कभी अप्रिय स्थितियों से निपटना हमारा कर्तव्य है और इसलिए लोकतंत्र के इस मंदिर को कभी भी अपवित्र नहीं किया जाना चाहिए। पद का सम्मान हमेशा बना रहना चाहिए और इसके लिए संसद और विधानमंडल के वरिष्ठ सदस्यों को आगे आना चाहिए।

अनुच्छेद 105 के तहत संवैधानिक प्रावधान संसद सदस्यों को सदन में अभिव्यक्ति का एक अद्वितीय अवसर प्रदान करता है। हालाँकि, यह संवैधानिक अधिकार एक शर्त के साथ आता है कि सदन में जो कुछ भी बोला जाएगा वह सत्य के अलावा कुछ नहीं होना चाहिए। यह अप्रामाणिक जानकारी के मुक्त प्रसार का मंच नहीं है।

विधायकों को सदन में कही गई किसी भी बात के संबंध में देश के 1.3 बिलियन नागरिकों द्वारा किसी भी दीवानी या आपराधिक कार्यवाही के विरुद्ध प्रतिरक्षा का विशेषाधिकार प्राप्त है। लेकिन यह विशेषाधिकार आपको सदन में अपने संबोधन में प्रामाणिक जानकारी प्रदान करने की बड़ी जिम्मेदारी के साथ मिलता है। इसका कोई भी उल्लंघन विशेषाधिकार का गंभीर उल्लंघन है।

मैं 1989 में संसद के लिए चुना गया था और मुझे मंत्री बनने का सौभाग्य मिला। एक समय था जब हमारे बीच सौहार्द और सामंजस्य था, हमारे पास प्रतिउत्पन्नमति, हास्य, व्यंग्य और कटाक्ष था। ये सब हमसे दूर होते जा रहे हैं। हमें वापस उसी लय में लौटना होगा।

व्यंग्य की जगह प्रतिउत्पन्नमति की जगह हास्य की जगह व्यंग्य की जगह विरोधात्मक परिदृश्य, टकरावपूर्ण दृष्टिकोण है हमें सहयोग की आवश्यकता है हमें सहमतिपूर्ण दृष्टिकोण की आवश्यकता है। हम दूसरे अति पर हैं।

अब हम प्रायः टकरावपूर्ण एवं प्रतिकूल परिदृश्य देखते हैं।

जनता के लिए इससे अधिक दुखद कुछ नहीं हो सकता कि उसे अपने उन प्रतिनिधियों से ऐसी दयनीय स्थिति देखनी पड़े जिन्हें उसने बड़ी आशाओं और अपेक्षाओं के साथ यहां भेजा है।

मैं सभी राजनीतिक दलों से अपील करता हूँ कि वे अपने भीतर और आपस में गंभीरता से विचार-विमर्श करें। मुझे सदन में और अपने कक्ष में गंभीर स्थितियों का सामना करना पड़ रहा है। सांसद आते हैं, वे प्रतिभाशाली लोग हैं, वे समर्पित लोग हैं, लेकिन वे कहेंगे कि पार्टी का आदेश है। अब मुझे सदस्यों की मजबूरी का एहसास हो रहा है। पार्टी ने ऐसा आदेश दिया है कि शायद ही कभी आप अध्यक्ष की बात सुनेंगे, लेकिन मैं आपसे और आपके माध्यम से आपकी राजनीतिक पार्टी से अपील करता हूँ कि कोई राजनीतिक पार्टी नारेबाजी, वेल में जाने, व्यवधान के लिए आदेश कैसे दे सकती है?

इसलिए मैं सभी राजनीतिक दलों से अपील करता हूँ कि हम अपने लोकतंत्र के 75वें वर्ष में हैं। हम मार्च 2047 में होने की कल्पना करें, जब देश अपनी स्वतंत्रता की शताब्दी मनाएगा। हम विकसित भारत होंगे। 2047 के लिए एक मैराथन मार्च चल रहा है। आप सभी उस मैराथन मार्च के सबसे महत्वपूर्ण प्रतिभागी हैं। इसलिए आपको उदाहरण बनना होगा, आपको प्रत्यक्ष रूप से आगे बढ़कर नेतृत्व करना होगा और मुझे यकीन है कि राजनीतिक दलों को अपने सदस्यों में अनुशासन की गहरी भावना पैदा करनी चाहिए। इससे उन सदस्यों को पुरस्कृत किया जाएगा जिनका प्रदर्शन शानदार रहा है, न कि उन लोगों को जो नारेबाजी करते हैं और वेल में चले जाते हैं।

जब सांसद मुझसे मेरे चैंबर में मिलते हैं तो मुझे अक्सर गंभीर स्थिति का सामना करना पड़ता है। वे खुलासा करते हैं, वे स्पष्टवादी होते हैं, वे गंभीर होते हैं और वे कहते हैं कि राजनीतिक पार्टी के आदेश का पालन मर्यादा और नियमों की अनदेखी करके किया जाना चाहिए।

यह स्थिति हमारी लोकतांत्रिक परंपराओं के लिए शुभ संकेत नहीं है। संवैधानिक व्यवस्था में, सदन को बाधित करने, व्यवधान डालने, वेल में जाने और नागरिकों की आवाज उठाने के लिए बनी कार्यवाही को जानबूझकर बाधित करने का आदेश कैसे दिया जा सकता है?

माननीय सदस्यगण, विधायिका की प्राथमिक जिम्मेदारी कार्यपालिका को जवाबदेह बनाना और संभावित कानूनों की जांच करना है। एक निष्क्रिय संसदीय मंच सदस्यों को उत्तरदायित्व तय करने के अवसर से वंचित करता है।

हर सदस्य को चाहे वह समिति में हो या सदन में, कार्यवाही में भाग लेने का अधिकार है। मैं सदस्यों से आग्रह करता हूँ कि वे पूरी तरह से तैयार रहें। कई बार ऐसा होता है, कभी यह पक्ष सत्ता में होता है, कभी वह पक्ष सत्ता में होता है, लेकिन सरकारें सदन में किसी सुविज्ञ सदस्य की रखी बात पर ही अक्सर संशोधन लेकर आती हैं।

जब हम कार्यवाही में भाग नहीं लेते हैं तो हम कानून में कोई गलती नहीं ढूंढ सकते। मेरे अनुसार, कार्यवाही में भाग न लेने का कोई बहाना नहीं हो सकता।

और यह कितना क्रूर है, यह न्याय का कितना बड़ा उपहास है कि कोई व्यक्ति अवसर मिलने पर भी विचार-विमर्श में भाग नहीं लेता।

दूसरी ओर, आप अपनी अनुपस्थिति को भुनाना चाहते हैं।

असफलता को कैसे भुनाया जा सकता है? कर्तव्य का पालन न करने को कैसे भुनाया जा सकता है? मुझे यकीन है कि आप इस बात को ध्यान में रखेंगे।

आम सहमति और सहयोग हमारे विधायी कामकाज की धुरी होनी  चाहिए। याद रखें, प्रभावी विधायिका प्रशासन में पारदर्शिता और उत्तरदायित्व सुनिश्चित करने का सबसे ठोस तरीका है।

मैं डॉ. बी.आर. अंबेडकर के एक उद्धरण के साथ अपनी बात समाप्त करता हूं:

“जाति और धर्म के रूप में हमारे पुराने शत्रुओं के अलावा, हमारे पास कई राजनीतिक दल होंगे जिनके राजनीतिक धर्म अलग-अलग और विरोधी होंगे। क्या भारतीय अपने धर्म से ऊपर देश को रखेंगे या वे धर्म को देश से ऊपर रखेंगे?

मुझे नहीं पता। लेकिन इतना तो तय है कि अगर पार्टियां धर्म को देश से ऊपर रखेंगी, तो हमारी आज़ादी दूसरी बार ख़तरे में पड़ जाएगी और शायद हमेशा के लिए खो जाएगी। इस स्थिति से हम सभी को पूरी तरह से सावधान रहना चाहिए।”

मुझे विश्वास है कि आप बाबासाहेब के चेतावनी भरे शब्दों पर विचार करेंगे।

मैं महाराष्ट्र विधानमंडल के माननीय सदस्यों और राज्य के सभी लोगों को समृद्धि और समावेशी जीवन की ओर उनकी निरंतर यात्रा के लिए अपनी शुभकामनाएं देता हूं।

भारत 2047 तक एक विकसित राष्ट्र बनने की राह पर है। इस मैराथन यात्रा के सबसे महत्वपूर्ण चालक राज्य और केंद्रीय सांसद हैं। सांसदों का नेतृत्व मिसाल कायम करने वाला होना चाहिए।

आप राष्ट्र और विश्व के लिए प्रगति और लचीलेपन का अनुकरणीय उदाहरण बने रहें।

आपके समय और धैर्य के लिए आभारी हूँ।

जय हिन्द।

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